उपन्यास >> शोध शोधतसलीमा नसरीन
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तसलीमा नसरीन का एक और पठनीय उपन्यास
अपने दोस्त के उस खाली घर में हारुन ने मुझे काफ़ी देर तक बिठाए रखा।
'जाने की इतनी हड़बड़ी क्यों है, भई?' वह बार-बार मुझसे पूछता रहा।
'मुझे सुभाष के घर जाना है। उसकी माँ को अपने साथ अस्पताल ले जाना है।'
'यह भी कोई वज़ह हुई? अस्पताल तो वे और किसी के साथ भी जा सकती हैं-
'जा सकती हैं, मगर वे मेरे साथ ही जाना चाहती हैं।'
'उनके चाहने भर से क्या तुम्हें दौड़ जाना होगा? तुम 'ना' कर दो, बस! कह दो, तुम व्यस्त हो! बस, छुट्टी!'
हाँ, यह भी सम्भव था! हारुन ने कुछ गलत नहीं कहा था। अगर मैं जाने से मना कर देती, तो काकी किसी और बन्दे को जुटा लेती या अकेली ही अस्पताल और अगर न जा पातीं, तो अस्पताल जाना ही खारिज कर देतीं। मेरे न जाने से काकी-माँ मर नहीं जातीं। वे बेहद जीवन्त महिला हैं! जीने की तीखी चाह है उनमें! दःख कष्ट रोग-शोक सारा कछ बर्दाश्त करने वाली महिला! मैं उन्हें बचपन से ही देखती आई हैं। उन्होंने मझे सगी माँ से कम प्यार नहीं दिया। जब मैं और सुभाष स्कूल में पढ़ते थे, पूरे दो महीने, वे हमारे यहाँ रही भी थीं। सुभाष से मेरी दोस्ती उन्हीं दिनों हुई थी। वह उम्र में मुझसे सोलह दिन बड़ा था। काफ़ी कुछ जुड़वा भाई-बहन की तरह! हम दोनों बड़े हुए। नितून काका अपना वारी वाला घर छोड़कर, कलकत्ता चले जाना चाहते थे, अपना मकान बेचने के लिए वे पागलों की तरह ख़रीददार ढूँढ़ते फिर रहे थे। उन्होंने पापा से भी कहा कि उनका मकान वे ही ख़रीद लें। वे अपना मकान काफ़ी सस्ते में बेच रहे हैं। लेकिन पापा ने उनका मकान नहीं खरीदा, उल्टे उनकी ज़रूरत पर वे उन्हें रुपए देने को तैयार हो गए। नितून काका, पापा के बचपन के साथी थे। उन दोनों ने एक ही स्कूल, एक ही क्लास में साथ-साथ लिखाई-पढ़ाई की। उसके बाद दोनों ही वारी के किसी स्कूल के टीचर बन गए। उनकी आँखों के सामने, उनका दोस्त अपना रिहायशी मकान छोड़कर चला जाए, यह उनसे बर्दाश्त नहीं हुआ। लेकिन नितून काका ने, अपना मकान, बिल्कुल पानी के मोल, किसी और के हाथ बेच दिया। जब वे जैसोर की बस में सवार हए. उसी बस में ही उनकी छाती में दर्द उठा। अपना सफर रोककर. वे आराम करने के लिए, हमारे ही यहाँ ठहर गए। उन्होंने सोचा था, उनकी छाती का दर्द ज़रा कम हो जाए, तो वे दुबारा सफ़र पर निकल पड़ेंगे। अगला दिन आ पहुँचा। लेकिन उस दिन बस में सवार होने की ताकत तो क्या, बिस्तर से भी उठने की ताकत उनमें नहीं बची थो। नितून काका के यूँ आकस्मिक प्रस्थान के बाद, काकी-माँ, अपने दोनों बेटों के साथ, दो महीनों तक हमाने ही यहाँ रुकी रहीं।
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