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शोध

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :176
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3010
आईएसबीएन :9788181431332

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तसलीमा नसरीन का एक और पठनीय उपन्यास


उन्होंने मुझे समझाया, 'देखो, हारुन को जो पसन्द है, वहीं खाना पकाना; जैसा वह कहे, उसी तरह चलना; उसके मुंह पर कोई जवाब मत देना; ऐसा कोई काम मत करना, जिससे वह नाराज़ हो; वह जिस साड़ी की तारीफ़ करे, उसके सामने वही साड़ी पहनना; बालों की अगर वेणी बनाने से वह खुश होता है, तो वेणी बनाना, अगर उसे तुम्हारा जूड़ा पसन्द है, तो जूड़ा ही बनाना। दिमाग में अगर बुद्धि हो, तो पति की मनभावन बनने में, ज़्यादा कोई मेहनत नहीं पड़ती।'

'जी, आप ठीक कहती हैं।' कंघी साफ़ करते-करते मैंने जवाब दिया।

सासजी के बाल सँवारकर, मैंने उन्हें चाय-बिस्कुट दिया और अपने कमरे में चली आई। शाम को मैंने वही काँचीपुरम साड़ी पहनी जो हारुन ने मुझे दी थी। बालों का जूड़ा बनाकर, उसमें सुनहरी जरी खोंस ली। मैंने आँखों में काजल लगाया और होठों पर लिपस्टिक भी फेर लिया। मैं गालों पर रूज़ लगाना भी नहीं भूली।

मेरा साज-श्रृंगार देखकर, रानू ने पूछा, 'कहीं घूमने जा रही हो, भाभी?'

'न्ना!'

'फिर इतनी साज-सज्जा क्यों?'

'यूँ ही...'

हाँ, मुझे यह कहने में शर्म आई कि हारुन का मूड ठीक करने के लिए, आज मैं इतनी सजी-धजी हूँ। वह अगर खुश हो जाए, तो मुझसे बात करेगा। पहले की तरह घर में खाना खाएगा, मुझे अपनी बाँहों में कस लेगा, मुझे चूम लेगा, मुझे गोद में भरकर नाच उठेगा।

हबीब ने भी जब यही सवाल किया कि मैं क्या कहीं जा रही हूँ, मैंने शर्म छोड़कर जवाब दिया कि हारुन के आते ही कहीं बाहर जाऊँगी। कोई नाटक वगैरह देखने का इरादा है। यह मैंने कहा जरूर, लेकिन मन-ही-मन यह भी जानती थी कि नाटक-वाटक के बारे में, मेरी हारुन से कोई बात नहीं हुई और मैं कहीं बाहर जाने के इरादे से सजी-धजी भी नहीं थी। आज तो अपने पति को मुग्ध करने के लिए श्रृंगार किया था। हाँ, यह भी मुमकिन है कि अपनी सजी-सँवरी-बीवी को देखकर, पतिदेव का मन उसे साथ लेकर, घूमने को मचल उठे।

यह हारुन, वही हारुन था, जिसके साथ स्विस में खाना खाकर, महिला समिति मंच में नाटक देखकर, हाथों में हाथ डाले, दम बेली रोड की सड़क पर टहला करते थे। वह मुझे खींचकर टाँगाइल साड़ी कुटीर में ले जाने के लिए ज़ोर-ज़बर्दस्ती करता, मैं उसे सागर पब्लिशर्स की तरफ खींच ले जाती। यह हारुन, वही हारुन था, जो मुझे अक्सर छेड़ता रहता था, 'घरघुसरी मेंढकी की तरह, घर में बैठी-वैठी क्या करती रहती हो? अरे, भई, ज़रा बाहर निकलो, बाहर कितनी प्यारी हवा चल रही है। यह वहीं हारुन था, जो कभी पूनो की रात, मेरे साथ भींगने का चाव लिये, मुझे मेघना नदी के पार खींच ले गया था! सामने खिलखिलाती नदी, ऊपर खुला आकाश! उस अद्भुत चाँदी में बैठा-बैठा, वह विभोर होकर, मेरा गाना सुना करता था-'आज चाँदनी रात है, गए सभी वन में...'

जब मैं बैठी-बैठी हारुन का इन्तज़ार करती हूँ, मेरी धड़कनें तेज़ हो जाती हैं। मुझे लगता है, जैसे यह ब्याह से पहले का कोई वक़्त है। जैसे हारुन से मिलने से पहले, मेरा दिल धड़कता रहता था।

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पाँच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. बारह
  13. तेरह
  14. पन्द्रह
  15. सोलह
  16. सत्रह
  17. अठारह

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