उपन्यास >> शोध शोधतसलीमा नसरीन
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तसलीमा नसरीन का एक और पठनीय उपन्यास
हारुन ने भी लम्बी साँस ली!
'ठीक है! बाहर जाने का अगर खूब मन करे, तो मैं आज ही माँ के हाथ बाज़ार खर्च देनेवाला हूँ। साथ में कुछ रुपए और दे दूंगा। तुम दोलन को लेकर न्यू मार्केट चली जाना और अपनी पसन्द की कोई चीज़ ख़रीद लाना।
छोटे बच्चे को लेमनचूस थमाकर, जैसे उसकी रुलाई रोक देते हैं, उसी तरह हारुन भी मेरी नौकरी की फ़र्माइश रोकने के लिए, रुपयों का लेमनचूस थमाकर चला गया। हारुन के जाने के बाद, मैं शाम के वक्त दोलन के साथ बाज़ार की तरफ़ निकल गई और कुछेक हाँडी-पतीली और कपड़े-लत्ते खरीदकर लौट आई।
'क्या-क्या खरीदा, भई?' रात को हारुन ने दरयाफ्त किया।
'हाँड़ी-पतीली'
सारे सामान लाकर उसे दिखा भी दिया।
'अरे, वाह, तुम तो अच्छी-खासी गिरस्तिन बन गई हो।'
'.............'
'और क्या-क्या खरीदा?'
'तुम्हारे लिए एक फतुआ!'
'और?'
'हसन और अनीस के लिए दो शर्ट!'
'और?'
'और कुछ नहीं!'
हारुन ने मेरे दोनों तरफ़ के गाल चूमते हुए कहा, 'वा..ह! इसे ही तो कहते हैं, मेरी लक्ष्मी बहू! ऐसी लक्ष्मी बहू भला और किसकी है? कौन कहता है कि मैं ठगा गया?'
'क्यों? किसी ने कहा क्या कि तुम ठगे गए हो?' मैंने पूछा।
हारुन हँस पड़ा।
'नहीं! बिल्कुल भी नहीं। किसमें इतनी हिम्मत है, जो ऐसी बात करे?'
'फिर ठगे जाने का प्रसंग कहाँ उठता है?'
हारुन ने कोई जवाब नहीं दिया, मगर मेरा ख्याल है कि हारुन के ख़ुद अपने मन में यह सवाल उठता रहा है।
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