उपन्यास >> शोध शोधतसलीमा नसरीन
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तसलीमा नसरीन का एक और पठनीय उपन्यास
मैंने मेज़ पर खाना लगा दिया। हारुन, हबीब, अनीस और ससुरजी का खाना निपट जाने के बाद, मैं, सासजी, दोलन और रानू खाने बैठे। हमारा खाना निपट जाने के बाद, रसूनी और सकीना की बारी!
बड़ी बहू के सारे कर्तव्य-पालन के बाद, जब मैं दुबारा खिड़की के सामने आ खड़ी हुई, मुझे लगा, मैं किसी का इन्तज़ार कर रही हूँ। शायद किसी की राह देख रही हूँ! मैं भला किसका इन्तज़ार करूँगी, हारुन तो शाम-ढले लौटेगा। कभी-कभी मुझे यह ख्याल भी आता था कि मुमकिन कभी, किसी दिन अचानक ही, वह भरीदोपहरी में आ पहुँचेगा, जब मैं नहाकर निकलूंगी! उस वक़्त मेरे बालों में तौलिया लिपटा होगा, मेरे बदन पर घर में पहनी जानेवाली, मामूली-सी साड़ी लिपटी होगी। इस वक़्त मैं बेहद कोमल और स्निग्ध नज़र आती हूँ। हारुन मुझे अपनी बाँहों में कस लेगा।
मुझे अपने सीने से लिपटाकर कहेगा, 'उफ़! तुम्हारा तन-बदन तो रुई के फाहे की तरह नरम लगता है-'
विवाह के बाद, हारुन ने तीन दिनों की छुट्टी ली थी। उन तीन दिनों, वह पल-भर के लिए भी, मेरी नज़रों से ओझल नहीं हुआ। दोपहर को जब वह नहाने जाता था, तो मुझे भी खींचकर, बाथरूम में अन्दर कर लेता था। अपने सारे कपड़े उतारकर, मेरे भी सारे कपड़े उतार डालता था। मुझे फव्वारे के नीचे खड़ा कर देता था, मुझे अद्भुत मज़ा आता था। मेरी भीगी हुई देह पर हाथ फेरते हुए, वह गर्म हो उठता। उस वक़्त वह पाँच-छः बार मेरी देह से खिलवाड़ किया करता था। इन डेढ़ महीनों में वह खेल सिर्फ एकाध बार ही खेला जाता था। उसे फुर्सत कहाँ है? दफ़्तर से लौटने के बाद, घरवालों की खोज-खबर लेने, सबकी माँग-फ़र्माइश वगैरह सुनने के बाद, खा-पीकर टेलीविजन देखने के बाद, जब वह सोने के लिए कमरे में आता, तब काफ़ी रात हो चुकी होती। उसकी थकी-माँदी देह, एक बार, मेरी देह में घुलमिल जाती और नींद आते ही, वह करवट बदलकर गहरी नींद में खो जाता। हमारा दाम्पत्य जीवन, इसी तरह गुज़र रहा था। जैसे-जैसे दिन गुज़रते जाते हैं, आवेग की तीव्रता क्या कम होती जाती है? मेरा बेहद मन होता था कि इस बारे में शिप्रा से पूछताछ करूँ। लेकिन...शिप्रा के यहाँ फोन नहीं था, इसलिए यह जानकारी सम्भव नहीं था। यह बात चन्दना से पूछी जा सकती थी, लेकिन न उसका विवाह हुआ था, न नादिरा का! सच तो यह था कि उनमें से किसी को भी फोन करने का, मेरा मन ही नहीं होता था।
विवाह के फ़ौरन बाद, चन्दना, आरजू, सुभाष, नादिरा वगैरह इतना ज़्यादा फोन करते थे कि हारुन ने कहा, 'यह तुम्हारी ससुराल है, इसका तुम्हें अहसास है न?'
हारुन ने जाने कितनी बार यह बात याद दिलाई है कि यह मेरा घर नहीं है, मेरा ससुराल है। वैसे भी उन लोगों के साथ बात करने में, मुझे भी काफ़ी संकोच होता था। इस घर के लोग फोन के सामने खड़े रहते थे। इसके बाद, हारुन ने अचानक घर का नम्बर बदल दिया। वज़ह उसने यह बताई कि नौकरी पाने के लिए लोग-बाग़ घर में फोन करके, उसे तंग करते थे। लेकिन मेरा ख्याल था कि मेरे संगी-साथी इस घर में फोन न कर पाएँ, इसी इरादे से उसने नया नम्बर लिया है। मानो मुझे इशारे-इशारे में यह भी समझा दिया गया हो कि अब यह नया नम्बर अपने दोस्तों को न दूँ। मैंने किसी को नया नम्बर दिया भी नहीं। हारुन ने मुझे नया नम्बर देने से मना तो नहीं किया था, मगर मैंने उसकी दबी-टॅकी ख्वाहिश जान लिया था।
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