उपन्यास >> शोध शोधतसलीमा नसरीन
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तसलीमा नसरीन का एक और पठनीय उपन्यास
विवाह के बाद, इस घर में क़दम रखते ही, सारा कुछ अचानक ही बदल गया। पहले ही दिन मेरी जुबान पर हारुन का नाम सुनकर, माँ-बाबूजी, दोनों प्राणियों ने ही एतराज जताया।
‘पति को नाम लेकर नहीं बुलाते-'
जिस शख्स को नाम से पुकारने की आदत पड़ चुकी हो, अचानक उस पर पाबन्दी लगा दी जाए, तो इन्सान भयंकर बेक़ायदे में पड़ जाता है।
मेरी परेशानी देखकर, हारुन हँस पड़ा।
उसने मुझे समझाया, 'वे लोग ठहरे पुराने जमाने के इन्सान! वे दोनों जैसा चाहते हैं, वही करो। बेहतर है, उनके सामने, मुझे नाम से मत बुलाओ।'
बहरहाल, उनके सामने हारुन का नाम न लेते-लेते, अब उनकी आड़ में भी उसे नाम से न बुलाने की आदत पड़ चुकी है। ब्याह के डेढ़ महीने बाद, मैंने गौर किया, 'हारुन को मैं-' ए जी, सुनते हो! सुनना जी!' कहकर बुलाने लगी हूँ! मेरी जुबान धीरे-धीरे मन्द पड़ने लगी है। लेकिन हारुन ने इसमें कभी, कोई आपत्ति नहीं जताई।
विवाह के बाद, हम दोनों का शहर में बिन्दास घूमना-फिरना, दूर कहीं सैर-तफ़रीह में गुम हो जाना, यार-दोस्तों के यहाँ अड्डेबाज़ी वगैरह, एक तरह से बन्द ही हो गया है। विवाह के बाद, बार-बार निकली भी हूँ, तो हारुन ने नाते-रिश्तेदारों के घर ही जाती रही। आँचल से सिर ढंके, हारुन के पीछे-पीछे, उन घरों में दाखिल हुई, बड़े-बुजुर्गों को पैर छूकर प्रणाम किया। बस! पाँव छूकर प्रणाम करने की आदत मुझे बिल्कुल नहीं थी।
लेकिन हारुन ने मुझे आगाह किया, 'विवाह, जीवन को बदल देता है। तुम्हें काफ़ी कुछ नई-नई आदतें डालनी होंगी।'
रात को जब हारुन घर लौटा, मैंने अपनी उल्टी और सिर घूमने का प्रसंग दुबारा छेड़ा। मैंने उसे बताया कि उसकी दवा का कोई असर नहीं हुआ।
'असर न हो, ऐसा तो हो नहीं सकता-' हारुन ने पैन्ट की जगह लुंगी लपेटते
हुए कहा।
'तुम्हें क्या नहीं लगता कि यह कोई और ही लक्षण है?'
'और ही लक्षण? कैसा?'
हारुन मानो आसमान से गिरा। हालाँकि मैंने इस लक्षण के बारे में सुबह ही जिक्र किया था।
‘सुबह मैंने तुम्हें बताया तो था कि ये लक्षण देखकर, मेरा मन क्या कहता है!'
'क्या कहता है, ज़रा मैं भी तो सुनूँ!'
'लगता है, बच्चा-बच्चा...'
'भई, तुम्हारे लगने से तो कुछ नहीं होगा...'
'तो, मुझे डॉक्टर के यहाँ ले चलो। डॉक्टर ही बताए कि मुझे क्या हुआ है।'
'इतनी ज़रा-सी बात के लिए दौड़कर डॉक्टर के यहाँ जाना चाहती हो? तुम तो हर बात में हद करती हो, भई!'
यह कहते हुए, वह पैर पटकते हुए, सीधे बावर्चीखाने की तरफ़ दौड़ गया। उसने ख़ामोशी से खाना खाया और वहीं बैठे-बैठे टेलीविजन देखने लगा। कमरे में अकेली मैं, खिड़की के सामने खड़ी रही। आकाश से अँधेरा टपकता हुआ! चारों तरफ़ के उस घोर स्याह अँधेरे की तरफ़, मैं घोरतर काली आँखें गड़ाए, देखती रही और अकेले-अकेले अपनी लम्बी-लम्बी उसाँसें सुनती रही।
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