उपन्यास >> शोध शोधतसलीमा नसरीन
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तसलीमा नसरीन का एक और पठनीय उपन्यास
रानू ने फिर होंठ बिचका दिए, प्यार-वार तो पहले ही हो-हवा चुका। जब स्कूल से भागकर, उसके साथ सनीमा जाती थी, पार्कों में घूमती-फिरती थी। एक दिन बड़ी दीदी की साड़ी पहनकर, बालिग सजकर, ब्याह पर जा बैठी।'
'अच्छा, विवाह पर कैसे बैठते हैं, बताओ तो? तुम क्या ब्याह के दिन कहीं बैठी थी और हसन खड़ा था?'
रानू खिलखिलाकर हँस पड़ी। मारे हँसी के उसके गाल गुलाबी हो आए।
उसने कहा, 'नहीं, नहीं, ऐसा नहीं था! हम दोनों ही बैठे थे, काज़ी साहब के दफ्तर में! लेकिन लड़की के ब्याह को कहते हैं-ब्याह पर बैठना और लड़के के ब्याह को कहते हैं-ब्याह करना!'
'यह पार्थक्य क्यों?'
'इसलिए कि ब्याह के बाद, लड़की अपने पीहर में बैठी रहती है और लड़का कामकाज़ करता है।'
हँसना चाहकर भी, रानू के जवाब पर मुझे हँसी नहीं आई। वह रत्ती-भर की लड़की में इतनी समझ कहाँ से आ गई?
हँसी-हँसी में ही अचानक काफ़ी मुश्किल-मुश्किल बात कह जाती है। यूँ उसे देखने में यही लगता है कि वह अपने अलावा और किसी की तरफ़ नजर उठाकर भी नहीं देखती, लेकिन इस रानू को ही ख़बर होती है कि घर में कौन, क्या कर रहा है।
मेरा मन हुआ कि मैं रानू को सलाह दूं कि वह अपनी लिखाई-पढ़ाई जारी रखे। लेकिन उसने खुद ही क़बूल किया कि उसकी लिखने-पढ़ने की बिल्कुल इच्छा नहीं है।
'एम. ए., बी. ए. करने से क्या फ़ायदा?' उसने मुझसे सवाल किया था। मैं उसके सवाल का कोई जवाब नहीं दे पाई। सात क्लास पढ़कर भी, ब्याह के बाद पति के घर में कोल्हू के बैल की तरह घानी खींचना पड़ता है, एम. ए. पास करके भी यही करना पड़ता है।
जश्न ख़त्म हो जाने के बाद भी जश्न की गमक बच रहती है। यह गायक, कमरे में झूलते गुब्बारों में, फ्रिज में लूंसे हुए बचे-खुचे पकवानो में मौजूद रहती है। खुदरा मेहमानों का आना-जाना लगा रहा। लोग-बाग हँसी-ठहाकों की सुखद डोंगी में बहते-तैरते रहे। लेकिन दिन धीरे-धीरे पहले की स्थिति में लौटने लगे। गहरी रातों में अचानक-अचानक दोलन की महीन रुलाई की आवाजें तैरकर ओनों-कोनों में गूंजते रहे। सासजी हबीब की फ़िक्र में दुबली हुई जा रही थीं। मैं आनन्द को इस-उस के जिम्मे सौंपकर या उसे सुलाकर, मैं छुटपुट खाना-वाना भी पकाने लगी। ससुरजी दिनोंदिन गम्भीर होते गए।
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