उपन्यास >> शोध शोधतसलीमा नसरीन
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तसलीमा नसरीन का एक और पठनीय उपन्यास
आखिर डॉक्टर अँझला उठता था, 'आप फ़िजल ही परेशान क्यों हो रहे हैं? सब ठीक है, यह बात कितनी बार दोहरानी होगी?
इसके बावजूद हारुन डॉक्टर के पीछे-पीछे सिर्फ़ चलता ही नहीं था, दौड़ने लगता था। मेरी मामूली-सी आह-कराह सुनते ही, वह झट डॉक्टर बुलाने दौड़ पड़ता था। डॉक्टर भी साफ़ सुना देता था-'पहले नर्स जाकर देखेगी, फिर वही मुझे बुलाएगी।'
हारुन की यह बदहवासी देखकर मुझे हँसी आती है, साथ ही गुस्सा भी!
मेरा मन होता है, उससे पू, 'किसके लिए तुम इतने परेशान हो? यह तो तुम्हारी सन्तान नहीं है! अपनी सन्तान की तो तुमने अपने हाथों हत्या कर डाली। अब जिसके लिए तुम्हारे मन में इतना प्यार उमड़ रहा है, इतने परेशान हो तुम, वह तो बूंद-भर भी तुम्हारा नहीं है! बूंद-भर भी नहीं।'
सिजेरियन की ज़रूरत नहीं पड़ी। प्रसव-कक्ष में भयंकर दर्द से चीखते-छटपटाते रात साढ़े तीन बजे, मैंने एक बेटे को जन्म दिया। हारुन ने उसे लपक लिया। मेरे और अफ़ज़ल की सन्तान को वह बेल-बूटेदार कथरी में लपेटकर, अपने सीने से चिपकाए रहा। यह मन्ज़र देखकर, मन-ही-मन, मुझे बेहद मज़ा आया। मैंने राहत सं आँखें मूंद लीं। जिस तरह नारियल खरचते हैं, उसी तरह हारुन की सन्तान को भी मेरी कोख से खुरचकर निकाल लिया गया था, यह बात मैं भूली नहीं थी। ऑपरेशन थिएटर में दाखिल होने से पहले, मैंने बेहद करुण-कातर निगाहों से हारुन को देखा था। लेकिन हारुन की आँखें पत्थर बनी रहीं, मैं रो पड़ी थी।
उसकी सख्त-निर्मम हथेलियाँ थामकर मैंने उससे चिरौरी की थी, 'मेरा विश्वास करो, हारुन, यह तुम्हारी ही सन्तान है! हमारे मिलन की पहली सौग़ात। अपने बच्चे की हत्या मत करो।'
हारुन ने मेरी एक न सुनी। उसने निर्मम हाथों से ऑपरेशन-कक्ष की ओर धकेल दिया। आँखें मूंदे-मूंदे, मैं आज भी नारियल खुरचने जैसी आवाज़ सुनती हूँ। नहीं, डॉक्टर या नर्स नहीं, खुद हारुन ही अपने हाथों से मेरी कोख खुरच डाली थी। हारुन का शरीर, पसीने से तर-ब-तर हो आया, आँखें सुर्ख-लाल, चेहरे पर दन्तियल हँसी! वह पागलों की तरह मुझे खुरच रहा था।
मुझे बेहद तकलीफ़ हो रही थी। मैं बार-बार उसे रुक जाने के लिए विनती करती रही। लेकिन उसने रुकने का नाम ही नहीं लिया। मुझे लगा, वह मेरी कोख में पड़ा हुआ भ्रूण ही नहीं, पूरी कोन ही खुरचकर निकाल देने को आमादा है! वह सँड़सी से मेरा पूरा तलपेट ही नोंच ले रहा है। मेरे पेट और छाती में जो कुछ भी था, सब गले से ऊपर तक उमड़ा आ रहा था। वह मेरी नाक, आँख, चेहरा-सारा कुछ निकाले ले रहा था! वह मेरा दिमाग तक खुरचता जा रहा था।
मेरा सिर भयंकर दर्द से फटने लगा। मैंने दर्द से चीखते हुए, डॉक्टर से नींद की दवा देने की गुहार लगायी।
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