उपन्यास >> शोध शोधतसलीमा नसरीन
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तसलीमा नसरीन का एक और पठनीय उपन्यास
फोन रखने से पहले, उसने कहा, 'एइ, तुम तो कुरान, आजकल अच्छा-खासा पढ़ने लगी हो-'
'हाँ, पढ़ रही हूँ। हसन की सेहत के लिए दुआएँ कर रही हूँ।'
'अब अपने लिए भी कुछ करो।'
'मतलब?'
'अपने बच्चे के लिए, अल्लाह से सिफ़ारिश करो।'
'हुँह, सब कुछ जैसे सिफ़ारिश के इन्तज़ार में है न! हर रात जिस रफ्तार से तुम...'
'अरे, हर रात भला कहाँ दे पाता हूँ? एइ , सुनो, आज रात...पूरे चार बार...'
'चार बार?'
'अगर तुम राजी हो, तो पाँच बार!'
फोन के रिसीवर को चट् से चूमकर, हमारे मधुर संवाद की इतिश्री हुई!
फोन रखने के बाद, मैं मन-ही-मन बुदाबुदा उठी-देना, अपना सारा रस, आज रात मुझमें समो देना। तुम्हारी लाखों-लाख शुक्राणु मेरी कोख में अन्धाधुन्ध दौड़ते फिरेंगे, उन्माद की मुद्रा में कुछ ढूँढ़ते फिरेंगे, लेकिन उनकी किसी डिम्बाणु से मिलन नहीं होगा। लेकिन, तुम्हें पता नहीं चलेगा, हारुन! ना, तुम्हें किसी दिन भी ख़बर नहीं होगी।
हसन के इलाज़ में हारुन के कुल कितने रुपए खर्च हुए, मुझे नहीं पता। वह कुछ-कुछ दिनों बाद ही सास-ससुर के हाथों में घर-ख़र्च के रुपए धर देता था। घर के पीछे कितने रुपए खर्च होते हैं, कहाँ, वह कितने रुपए ढालता है, कारोबार में कितना लाभ हुआ, कितना नुकसान-हारुन कभी भी इन बातों पर मुझसे बातचीत नहीं करता। सेवती को भी हिदायत दे दी गई थी कि हर महीने किराए के रुपए, वह सासजी के हाथ में दे जाया करे। हारुन जो रुपए-पैसों का मामला, मुझसे छिपाए रखता है, वह इसलिए कि वह मुझे शायद इसके क़ाबिल नहीं समझता। वैसे विवाह के पहले, उसकी नज़र में, मैं बेहद क़ाबिल थी! मुझे अपने दफ्तर में बिठाकर, मेरे सामने फाइल खोल रख देता और उसके पन्ने उलटते-पलटते, कई-कई अंकों पर उँगली रख देता-'यह है, पिछले महीने की मेरी कमाई, छः लाख! बढ़ रहा है...और बढ़ रहा है, आया समझ में? इससे पहले महीने, सिर्फ तीन लाख रुपए हुए थे। एक महीने में दुगुना हो गया। देखो, यह है बैंक का कज़; यह कुल ख़र्च और यह है-मुनाफा! अब लगता है, ब्याह के बाद मेरे दिमाग़ की ताकत, सेर-भर कम हो गई है। अब हारुन कैसी भी गपशप करे, रुपए-पैसों के किस्से मुझे कभी नहीं सुनाता। खैर, मैंने भी रुपए-पैसों को ज़िन्दगी की अनमोल धन कभी नहीं माना, लेकिन ससुराल आने के बाद रुपए-पैसों का मोल, हाड़-हाड़ में समझ गई हूँ। इस घर में सिर्फ एक ही इन्सान ऐसा है, जिसके हाथ में रुपया-पैसा नहीं होता। वह इन्सान मैं हूँ! सभी जानते हैं, मुझे रुपयों की कोई ज़रूरत नहीं पड़ती। मुझे, जिस चीज़ की भी ज़रूरत होती है, मेरे पतिदेव हैं न! वे ही दे देते हैं। हाँ, मुझे मालूम है, वे दे ही देंगे, ज़रूर देंगे। घर में पहनने के लिए मुझे और दो साड़ियाँ चाहिए; चेहरे पर लगाने के लिए नीविया क्रीम ख़त्म हो गई; साबुन या सैनिटरी, नैपकिन की ज़रूरत है-हारुन से कहना पड़ता है। हारुन कहता है, दोलन आज बाज़ार जा रही है, उसे रुपए दे जाऊँगा, वह ले आएगी या मैं ही ऑफ़िस से लौटते हुए, खरीद लाऊँगा या हबीब से कह देता हूँ, वह ले आएगा।
हारुन मुझे सबकुछ देता है। फिर भी कुछ नहीं देता। कभी-कभी लगता है, मेरे पास जो कछ भी था, सबकुछ हारुन ने छीन लिया!
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