उपन्यास >> शोध शोधतसलीमा नसरीन
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तसलीमा नसरीन का एक और पठनीय उपन्यास
अचानक फोन की घंटी सुनकर मैं हड़बड़ाकर उठ खड़ी हुई। मेरे 'हलो' का, दूसरी छोर से कोई जवाब नहीं मिला। महज एक लम्बी उसाँस सुनाई दी। मैं समझ गई, यह कौन है! मैंने रिसीवर रख दिया। अपने ही कानों में अपनी धड़कन गूंज उठी। ऐसी-ऐसी हरकतें करके, अफ़ज़ल मेरा सर्वनाश तो नहीं करेगा?
परेशानी में, मैंने अचानक हारुन का नम्बर मिलाया। मेरा फोन पाकर हारुन अचकचा गया।
'क्या बात है? क्या हो गया?' 'नहीं! कुछ हुआ नहीं। बस, यूँ ही! लौटोगे कब?' 'क्यों? कोई जरूरत है?'
'नहीं, ज़रूरत कोई नहीं है! तुम्हारी याद आ रही थी। तुम्हें अपने क़रीब इतना कम-सा पाती हूँ।'
हारुन कुछेक पलों को ख़ामोश हो रहा। पता नहीं, वह क्या सोच रहा था। पानी पीने की आवाज़ सुनाई दी।
'घर में सब ठीकठाक है न?'
'सब ठीक है। अब्बा सो रहे हैं। उन्होंने कहा है कि रात सोकर उठेंगे, तो काले जीरे का भात और सिंग मछली का शोरबा लेंगे। मैंने पकाकर रख दिया है।'
'दोलन क्या सुमइया को लेकर अस्पताल गई है?'
'हाँ-'
मैंने तो उससे कहा था, बच्चे को तुम्हारे पास छोड़ जाए।'
'मैंने भी कहा था। दोलन ने बताया कि उसने अपने हसन मामा को देखने की जिद पकड़ रखी है। अस्पताल के यन्त्र-पाती देखने का भी उसे बेहद शौक है।'
'बड़ा होकर, देखना, वह डॉक्टर ही बनेगा।'
'हाँ! तुम्हें कुछ चाहिए, तो पहले से ही बता दो। उम्मीद है, सैनिटरी नैपकिन की अब ज़रूरत नहीं पड़ेगी। क्यों, तुम क्या कहती हो?' हारुन हँस पड़ा।
हाँ, उम्मीद तो मुझे भी है कि नैपकिन की अब ज़रूरत नहीं पड़ेगी-' मैंने भी हँसकर जवाब दे डाला।
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