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शोध

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :176
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3010
आईएसबीएन :9788181431332

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तसलीमा नसरीन का एक और पठनीय उपन्यास


मैं इस सोच में पड़ गई कि मैं किसी हारुन को जानती हूँ या नहीं। मेरा दूर के रिश्ते का एक चचेरा भाई है-हारुन! बस, यहीं तक! भारी-भारी आवाज़ ! मैंने नहीं पहचाना, यह कहने के बावजूद उधर से फोन रखने का कोई लक्षण नज़र नहीं आया। जब तक मुझे यह याद नहीं आया कि शिल्पकला के मैदान में, गाने का कार्यक्रम शुरू होने से पहले, मैदान में बैठे-बैठे हमने अड्डेबाजी की थी, जहाँ एक नौजवान भी था जिसकी आँखें बेहद खूबसूरत थीं! बोलती हुई आँखें! बदन पर उजले-धुले कपड़े! जैसा कि हर नौजवान गाने की महफ़िल में आते हुए पहनते हैं! पायजामा-कुर्ता और चप्पल! कन्धे पर झोला! चेहरे पर कवि-कवि भाव लिये महफ़िल में घूमता-फिरता है! इन नौजवानों के चेहरे-मोहरे हरगिज़ ऐसे नहीं लगते कि वे सीधे मन्त्रालय से तशरीफ लाए हैं और यहाँ से लौटकर उन्हें मन्त्रीजी को इस संगीत-कार्यक्रम की रिपोर्ट देनी हो। दूर खड़े-खड़े, चाय पीते-पीते, उसकी नज़र मुझ पर ही गड़ी हुई थी, जब मैं आरजू के जोर-ज़बर्दस्ती पर गाने बैठी थी। जाने कैसे तो, वह हमारी महफ़िल में नाक-टाँग अड़ाकर और गाने की फर्माईश करता रहा। मेरे साथ सुभाष, आरजू, चन्दना और नादिरा थे। उन लोगों ने भी शोर मचाया, मैं और गाऊँ।

मैंने उस लड़के की तरफ़ मुस्कराकर देखा, आप कौन हैं, जनाब? न जान, न पहचान, हमारी मजलिस में घुस आए और अब गानों की फर्माइश कर रहे हैं?'

वह लड़का, असल में जिसे मर्द कहना ही बेहतर है, हँस पड़ा। उसकी हँसी बेहद खूबसूरत थी। बहरहाल मैदान की मजलिस से उठकर, जब हम मूल कार्यक्रम सुनने के लिए अन्दर हॉल में चले आए, वह शख्स भी हमसे ज़रा ही फ़ासले पर आ बैठा और उसकी नज़रें बार-बार मेरी तरफ़ उठती रहीं। कार्यक्रम के समापन में शाम गुज़र गई।

जब हम हॉल से बाहर आ रहे थे, उसी शख्स ने पीछे से मंतव्य जड़ा, 'उन सभी लोगों से बेहतर, आपका गाना था।'

चन्दना ने मेरे पेट में कोहनियाते हुए कहा, 'क्या रा, वह गधा यू तर पा क्यों पड़ा है?'

बहरहाल वह गधा जो यूँ हमारे पीछे लगा था, इसमें एक फ़ायदा तो हुआ। मैं और सुभाष, जब रिक्शे की तलाश में, पैदल-पैदल चलते हुए, ककरइल के मोड़ पर आ खड़े हुए, एक सफ़ेद रंग की टोयटा, हमारे क़रीब आते ही एकदम से रुक गई।

'जाना कहाँ है? चलिए, मैं पहुँचा देता हूँ।'

'जी नहीं, हम रिक्शा ले लेंगे।'

'रिक्शा नहीं मिलेगा। आज सारे रिक्शे स्टेडियम की तरफ़ चले गए हैं। फुटबॉल मैच अभी-अभी ख़त्म हुआ है।'

'हमें काफ़ी दूर जाना है! पुराने ढाका की तरफ...' मैंने हारुन को टालने की कोशिश की।

'अरे! मैं भी तो पुराने ढाका की तरफ़ ही जा रहा हूँ। मैं भी तो उसी तरफ रहता हूँ।

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पाँच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. बारह
  13. तेरह
  14. पन्द्रह
  15. सोलह
  16. सत्रह
  17. अठारह

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