उपन्यास >> शोध शोधतसलीमा नसरीन
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तसलीमा नसरीन का एक और पठनीय उपन्यास
कुमुद फूफी चाहती थी, मैं कोई जवाब दूं, हाँ या ना! अपनी तरफ़ से कोई जवाब न देकर, फ़िलहाल मैं कोई महाभारत नहीं छेड़ना चाहती थी। मेरा मन तो अफ़ज़ल में पड़ा हुआ था। कुमुद फूफी जब कमरे में चहलकदमी कर रही थीं, मैंने गौर किया कि खिडकी की राह आती हई धप का उजाला. कभी उनका चेहरा ढक लेता था, कभी छाँह लोटने लगती थी। फूफी के बदन पर मैं धूप-छाँह का खेल देखती रही। मेरे मन में तीखी चाह जाग उठी। काश, अफ़ज़ल के साथ, मैं भी धूप-छाँह का यह खेल, खेल पाती। मेरा मन हुआ किसी दिन अफ़ज़ल की रंग-तूलि अपने हाथ में उठा लूँ। मेरा मन आकुल-व्याकुल हो उठा, किसी दिन आकाश के सारे रंग तोड़कर, अपने तन-बदन में मल हूँ।
'अच्छा, तुम्हारी नींद क्या पतली है?'
मैंने इन्कार में सिर हिला दिया।
कुमुद फूफी ने अफ़सोस ज़ाहिर करते हुए बताया कि उनका भी यही हाल है। बम फूटने पर भी उनकी नींद नहीं टूटती।
'जिस औरत की नींद गहरी होती है, उनकी तक़दीर में दुःख बदा होता है।' उन्होंने अपने दाहिने हाथ की तर्जनी उठाकर, परम विश्वास के लहजे में कहा!
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'नींद अगर पतली होती है, तो पति जैसे ही बिस्तर छोड़कर उठता है, तो उसके पीछे-पोछे जा सकते हैं, सगे हाथों उसे पकड़ने का मौका मिलता है।'
कुमुद फूफी को बेचैनी से रहाई दिलाने के लिए, मैंने उन्हें आश्वस्त किया, 'हारुन बेहद शरीफ़ और भलामानस : फूफी! वह नौकरानी के साथ कभी नहीं सोएगा, आप फ़िक्र न करें।
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