उपन्यास >> अंधकार अंधकारगुरुदत्त
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गुरुदत्त का सामाजिक उपन्यास
सूरदास ने कह दिया, "मां। यहां बैठा मार्ग ढूंढ रहा हूं।"
''कहां का मार्ग ढूंढ रहे हो?" प्रश्न करने वाली एक प्रौढावस्था की स्त्री थी। वह मुस्करा रही थी।
सूरदास ने केवल इतना कहा, "अज्ञात का। मां, मुझे कैसे जानती हो?''
''अकेले हो अथवा कोई साथ है?"
''साथ तो कोई है, परंतु साथी कोई नहीं। साथ छूट रहा है।"
''तो ऐसा करो। चलो, मेरे साथ। मैं तुम्हारा साथी ढूंढ दूंगी।''
"कहां से ढूंढ दोगी?"
''डस संसार में से। असंख्य लोग हैं जो अनेकों दिशाओं को जा रहे हैं। जो उसी दिशा में और उसी मज्जिल को जा रहा होगा, जिधर और जहाँ तुम जा रहे हो। उसके साथ तुम्हें कर दूंगी।''
"पर मैं तो स्वयं नहीं जानता कि मैं कहां और किधर जा रहा हूं।"
"तब तो और भी ठीक है। तुमको भी राह पर डाल दू गी।'' "पर मां। आप हैं कौन और मुझे कहां देखा है आपने?"
''बता दूंगी मेरा कहा मानो। पहले चलो और फिर आराम से बैठ कर बता दूगी कि मैं कौन हूं। तुमने मां कहा है। अभी इतना ही पर्याप्त होगा।''
सूरदास ने एक क्षण तक ही विचार किया और सुन्दरदास तथा उसके द्वारा बना सेठ कौडियामल्ल के परिवार से सम्बंध टूटने में साधन उपस्थित होते ही वह उठ पड़ा और गीली धोती तथा तौलिया उठा उस स्त्री से बोला, "ये इस पण्डे को दे दो।"
पण्डा समीप ही तख्तपोश पर बैठा था। उसने पूछ लिया, "यह क्या है?"
उत्तर सूरदास ने दिया, "भैया! एक सुन्दरदास नाम का व्यक्ति आयेगा। वह कदाचित् मेरे लिये पूरी लेने गया है। ये उसे दे देना और कह देना कि वह अब घर को लौट जाये।''
इतना कह सूरदास ने हाथ उस स्त्री के हाथ में दे कहा, "माँ! चलो।''
सूरदास चलता हुआ विचार कर रहा था कि आवाज़ तो कुछ जानी-पहचानी है, परन्तु इससे कहां मिला होऊंगा।
वह स्त्री उसे लिये हुए भीमगोडे की सड़क पर एक मकान मैं ले गयी। उसे मार्ग दिखाते हुए वह मकान में ले जा एक कमरे में बैठा बोली, "मैं धनवती हूं। आया है कुछ स्मरण?''
''हां, मां! बाबा कहां हैं?''
''वह तो चल दिये। आज पांच वर्ष हो गये है, परन्तु जानते हो,
जब तुम हमारे घर में रहते थे तब यह मकान कैसा था?
"अब कुछ ठीक स्मरण नहीं आ रहा। इतना स्मरण है कि कमरे की भूमि कच्ची थी। जब बाबा मुझे संतजी के आश्रम में छोड़ने जा रहे थे तो उन्होंने बताया था कि मैं उनका पुत्र नहीं हूं और वह अति निर्धन होने से मेरे पालन-पोषण के लिये किसी से रुपया पाते थे। धन देने वाले की यह इच्छा है कि मैं संतजी के आश्रम में रहूं। अत: वह मुझसे अगाध प्रेम करते हुए भी अपने घर में रखने में असमर्थ हैं। वह मुझे वहां छोड़ कर लौट आये थे और पीछे मुझसे कभी नहीं मिले।"
"हां। जिसके तुम पुत्र हो उसकी यही इच्छा थी।''
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- प्रथम परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :
- : 11 :
- द्वितीय परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :
- तृतीय परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :
- चतुर्थ परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :