उपन्यास >> अंधकार अंधकारगुरुदत्त
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गुरुदत्त का सामाजिक उपन्यास
इन सब निराशाओं से वह भरा हुआ था जब मुंशी कर्तानारायण ने उसे आकर बताया, कि सेठजी यद्यपि प्रकाश के व्यवहार को ग़लत और बचपना मानते हैं, परन्तु वह उनका इकलौता बेटा है, इस कारण वह उससे लड़ नहीं सकते। इसलिये वह चाहते हैं कि सूरदास किसी अन्य स्थान पर चला जाये। इस सूचना पर सूरदास ने निर्णय कर लिया और उसने अपना निर्णय कर्तानारायण को बता दिया। इसके कुछ ही काल उपरान्त सुन्दरदास आया और उसने बताया कि सेठानी जी ने भी सूरदास का अभी वहां से चला जाना ठीक समझा है और उन्होंने उसके लिये सुन्दरदास को अभी एक सौ रुपया कहीं जाने के लिये दिया है। इस बात ने तो उसके मन में उठ रहे वैराग्य को सक्रिय कर दिया और वह उसी समय उठकर चलने के लिये तैयार हो गया।
वह सुन्दरदास के साथ जब हवेली से निकला और सुन्दरदास उसे हवेली के पार्शव में अन्धेरे में खड़ा कर अपनी पत्नी को सूचित करने गया तो कमला की दासी बिन्दु की दृष्टि अन्धेरे में खड़े सूरदास पर पड़ गयी। वह सेठानीजी के पास किसी काम के लिये अपने घर से आ रही थी। सूरदास को अकेले वहां खड़े देख समीप आ पूछने लगी, ''राम भैया! यहाँ किसलिये खड़े हो?''
सूरदास ने आवाज़ पहचानी और कह दिया, ''बिन्दु बहन! देखो, मैं यह घर छोड़ रहा हूं।''
''क्यों और कहां जा रहे हो?''
''मुझे घर में अन्धकार बढ़ रहा प्रतीत हो रहा है। चलते-चलते ठोकरें खाने लगा हूं।''
''भैया! नाराज़ हो गये हो? किससे?''
''नहीं बहन, नाराज नहीं हूँ। प्रकाश की खोज में जा रहा हूँ। अच्छा बिन्दु, देखो। मेरा एक काम करना। कमला बहन से कुहना कि मैं अब यहाँ नहीं आऊंगा और वह विवाह कर ले। संसार की ऐसी ही गति है। यह बात उसे कुल सुबह कहना।''
बिन्दु यह विचार करती हुई कि अभी जाकर कमला बहन को बता दे, सीधी ऊपर की मज्ज़िल पर चली गयी। परन्तु परिवार भोजनशाला में बैठा भोजन करता हुआ कुछ उत्तेजित अवस्था में वार्तालाप कर रहा था। वह कमरे के बाहर खड़ी न रह अपने काम में लग गयी। जब काम से अवकाश पा गयी तो कमला बहन के कमरे में जा पहुंची। कमला सेठानीजी के शयनागार से आ रही थी।
बाहर सूरदास सुन्दरदास के आते ही उसके साथ कासंगज की सड़क पर चल पड़ा। मार्ग में खड़ी बस मिल गयी शौर बस में बैठ
वे कासगंज जा पहुँचे कासगंज से आगरा और आगरा से। दिल्ली तथा दिल्ली से हरिद्वार पहुँचने में किसी प्रकार की कठिनाई नहीं हुई। सुन्दरदास के पूरी लेने के लिये जाने पर सूरदास शान्त चित्त हो विचार करने लगा कि आगे उसे कहां जाना चाहिये? वह यह तो मन में निश्चय कर चुका था किउसेसंत कृष्णदास के आश्रम में नहीं जाना चाहिये। वह आश्रम उसे अब इतना पवित्र और सुखप्रद प्रतीत नहीं होता था, जितना कि संत माधवदास के काल में था। उसके मन में कुछ ऐसा भी विचार आ रहा था कि वह घाट पर बैठ कर ही कथा कीर्तन किया करे। सुन्दर दास यदि साथ रह जाये तो यहा रहता हुआ वह जीवन सकार्थ कर सकेगा, परन्तु वह विचार कर रहा था कि सुदंरदास को साथ रखने से तो वह सेठजी के घर से संयुक्त रहेगा और तब कमला, प्रकाश तथा सेठ और सेठानीजी के विभिन्न आकर्षणों में फंसा रहेगा। वह सेठजी के घर से अलिप्त हो जाना चाहता था, परन्तु यह हरिद्वार में रहते हुए नहीं हो सकेगा। अत: प्रश्न फिर यही था कि कहां जाये और कैसे जाये? वह इन विचारों की उलझन में पड़ा हुआ किसी निर्णयात्मक व्यवहार का निश्चय नहीं कर पा रहा था कि उसे किसी के उसका नाम लेकर पुकारने की आवाज़ आयी। कोई उसके समीप बैठ कह रहा था, "राम! यहाँ बैठे क्या कर रहे हो?"
शब्द अपरिचित थे, परन्तु कोई उसे जानता प्रतीत होता था। उसने उस प्रश्नकर्ता की ओर मुख उठाकर देखा मानो वह उसे पहचानने का यत्न कर रहा है। परन्तु यह तो एक स्वभाव बन चुका था कि वह जिधर से उसे कोई बुलाता थार, उधर मुख उठा देखने लगता था।
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- प्रथम परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :
- : 11 :
- द्वितीय परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :
- तृतीय परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :
- चतुर्थ परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :