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अंधकार

गुरुदत्त

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16148
आईएसबीएन :000000000

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गुरुदत्त का सामाजिक उपन्यास

''मैं भीतर गया तो उनके पी.ए. ने सिर से पांव तक देखकर पण्डित जी के सामने ले जाकर खड़ा कर दिया। पंडितजी मुझे एक क्षण तक देखकर पूछने लगे, "उस कथा करने वाले को भी साथ. लाये हो?"

''जी नहीं।" मैंने कहा।

''क्यों?"

"आपने पसन्द नहीं किया न। जब से मुझे आपकी रुचि के विषय में पता चला है, मैंने उसकी संगत का त्याग कर दिया है।"

पंडित जी मुस्कराये और पूछने लगें, ''तो अब तुम उस मूर्खंता से पृथक हो?"

''मैं कह नहीं सका कि वह मूर्खता थी। इस पर भी मैंने कहा, "मिस्टर सिन्हा जिन्हें लखनऊ के मिस्टर शर्मा ने मेरे निर्वाचन कार्य में सहायतार्थ भेजा था, बता रहे थे कि रामकथा के आश्रय मैं सफल हो जाऊंगा। पीछे जब आप बदायूं आये थे तो वह कहने लगे कि राम कथा ने मेरे चुने जाने में भारी बाधा स्वीकर दी है। इस कारण पण्डित जी उस रामकथा का गुण-दोष तो सिन्हा जी की सम्मति का फल ही है। मैं इससे सर्वथा निर्लिप्त हूँ।"

इस पर पण्डित जी पुन: मुस्कराये और पूछने लगे, "कि मेरी योग्यता क्या है? मैं इस प्रश्न के लिये तैयार था। यह मुझे सिन्हा ने बता दिया था कि संसद में प्राय: वकील जाते हैं। मैंने पण्डित जी को बता दिया। मैंने कहा, "जी, योग्यता तो यह है कि वर्ष में इतना काम-धन्धा कर लेता हूँ कि जिससे सरकार को पिछले वर्ष नब्बे लाख आयकर दिया है। साथ ही हमारे कारोबार मैं पांच वकील दो-दो सहस्त्र वेतन पाने वाले काम करते हैं।"

''तो उनमें से किसी ने बताया नहीं कि निर्वाचनों में रामकथा

अवैध है?"

''जी नहीं। सबने यही कहा था कि यह एक श्रेष्ठ काम है।''

''इस पर पण्डित जी ने बात बदल दी और कहा, "आपका निर्वाह कांग्रेस दल में नहीं हो सकेगा।"

''जब दम घुटने लगेगा तो विचार कर लूँगा।"

"इस प्रकार बात हुई, परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि मेरे राम भक्त होने को सब सदस्यों ने एक ही रूप में नहीं देखा। कुछ तो पण्डित जी की भान्ति मेरे व्यवहार को घृणा की दृष्टि से देखते है। कुछ इसे एक श्रेष्ठ नीति मानते हैं और कुछ यह भी कहते सुने गये हैं कि मैं किसी प्राचीन काल की गली-सड़ी हड्डी हूं। अभी तक एक मद्रासी लोक सभा का सदस्य मिला है, जो मुझे सफल होने पर बधाई देने आया है।

''मैं स्वयं राम के कार्य से लज्जित अनुभव करता था, परन्तु मैंने घृणा करने वालों की बात को स्वीकार नहीं किया, वैसे ही इसे श्रेष्ठ नीति समझने वालों का समर्थन भी नहीं किया। इसी प्रकार मुझे गली-सड़ी हड्डी कहने वालों का प्रतिवाद भी नहीं किया। साथ ही इस बधाई देने वाले को भी मैंने दूसरों की भान्ति चाय, काफी से स्वागत किया है।

''बात यह है कि मिस्टर सिन्हा जो अब मेरे पी0 ए. हैं, कट्टर नेहरूवादी हैं और वह मुझसे वेतन लेते हुए भी और मेरा अन्न खाते हुए भी, मुझसे घृणा करते प्रतीत होते है। वह उत्तर प्रदेश के नेता मिस्टर शर्मा के आदमी हैं और मैं उनको निकाल नहीं सकता।

''तुमने ज्योति स्वरूप के विषय में क्या किया है? बताओ। वह पटीशन कर रहा है अथवा नहीं? तुम अपने पिता से मिलकर यह सब पता करो कि उसको शान्त करने के लिये क्या उपाय किया जाना चाहिये?''

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    अनुक्रम

  1. प्रथम परिच्छेद
  2. : 2 :
  3. : 3 :
  4. : 4 :
  5. : 5 :
  6. : 6 :
  7. : 7 :
  8. : 8 :
  9. : 9 :
  10. : 10 :
  11. : 11 :
  12. द्वितीय परिच्छेद
  13. : 2 :
  14. : 3 :
  15. : 4 :
  16. : 5 :
  17. : 6 :
  18. : 7 :
  19. : 8 :
  20. : 9 :
  21. : 10 :
  22. तृतीय परिच्छेद
  23. : 2 :
  24. : 3 :
  25. : 4 :
  26. : 5 :
  27. : 6 :
  28. : 7 :
  29. : 8 :
  30. : 9 :
  31. : 10 :
  32. चतुर्थ परिच्छेद
  33. : 2 :
  34. : 3 :
  35. : 4 :
  36. : 5 :
  37. : 6 :
  38. : 7 :
  39. : 8 :
  40. : 9 :
  41. : 10 :

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