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अंधकार

गुरुदत्त

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16148
आईएसबीएन :000000000

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गुरुदत्त का सामाजिक उपन्यास

परन्तु कमला गीत सुन रही थी उसके सामने सब कुछ विलुप्त हो गया था। तारकेश्वरी के प्रश्न को सुना नहीं। वह निश्चय कर रही थी कि किसकी आवाज़ है? वह कहीं भूल तो नहीं कर रही।

कमला के मन में विश्वास होते ही कि यह उसके नयनाभिराम ही हैं, वह उठी और ड्रायंग रूम से बाहर निकल उस कमरे को चल पड़ी जिधर गाना हो रहा था।

तारकेश्वरी और सेठ कौड़ियामल्ल भी उठ खड़े हुए। धनवती तो पहले ही खड़ी थी। ये भी कमला के पीछे चल दिये।

सूरदास गा रहा था। उसके सामने मृदुला और प्रियवदना बैठी सुन रही थीं। कमला ने कमरे में प्रवेश करते ही सिर सूरदास के चरणों पर रख दिया। वह बोली नहीं। सूरदास ने तानपुरा एक ओर रख दिया और संगीत बन्द कर पूछ लिया, "कमला हो?"

"जी!" कमला की आंखों से आंसूं बह रहे थे और सूरदास के पांवों पर गिर रहे थे। सूरदास ने कहा, "तुम तो रो रही हो?"

''नहीं तो।"

"उठो। सामने बैठ जाओ। सुनाओ, कब आयी हो?''

कमला आंखें पोंछते हुए पीछे हट कर बैठ गयी। सेठ जी तथा तारकेश्वरी उसे देख आश्चर्य चकित हो उसको आंखें पोंछते हुए देख रहे थे। धनवती कमला के पास बैठ गयी और उसकी पीठ पर प्यार दे हाथ फेरती हुए बोली, "कमला! धैर्य रखो। भगवान् धनी और अकिंचन दोनों की सुनता है। वही सुनने वाला है।"

सूरदास ने आंखें मूंदे हुए कह दिया, "बहुत अच्छा किया है। आ गयी हो। मैंने पिताजी से कल कुछ कहा था। उनसे बात कर लो और देखो मेरी यहां माँ हैं। भगवान की कृपा है कि उनका हृदय अति कोमल दया से भरा हुआ है। उनसे भी मिल लो।''

कमला ने अश्रुपूर्ण आंखों से उनकी ओर देखा। तारकेश्वरी ने कह दिया, "आओ कमला! इनको अपना संगीत करने दें। अभी अल्पाहार में एक घण्टे से ऊपर है।"

कमला उठी और चुपचाप उठकर तारकेश्वरी के समीप जा खडी हुई। तारकेश्वरी ने प्रियवदना को भी कहा, "प्रियम्! तुम भी आओ। तुम्हारा भी परिचय कमला से करा दूं।''

वह इनके साथ जाना नहीं चाहती थी। उसने कहा, "बूआ! तुम चलो, मैं आ रही हूं।"

सेठ और अन्य सब में कमरे लौट आये। प्रियवदना ने सूरदास से पूछा, "तो यह लड़की है, जिससे आप विवाह की इच्छा कर रहे हैं?"

"इच्छा? नहीं बहिन प्रियवदना! इसे इच्छा नहीं कह सकते।" 

"तो यह क्या है?''

''मैंनै रात बताया था कि यह विवाह की इच्छा नहीं। इस पर भी एक बन्धन है जो बरबस एक ओर को खींचता चला जा रहा है। देखो, मैं सेठजी के परिवार को छोड़कर विलुप्त होगया था। मैं समझता था कि बम्बई के मानव सागर में एक अज्ञात मछली की भान्ति छुपा पड़ा रहूंगा; परन्तु देखा है न, उस बन्धन की बंसी में मछली की भान्ति पकड़ा हुआ बाहर आ गया हूं।"

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    अनुक्रम

  1. प्रथम परिच्छेद
  2. : 2 :
  3. : 3 :
  4. : 4 :
  5. : 5 :
  6. : 6 :
  7. : 7 :
  8. : 8 :
  9. : 9 :
  10. : 10 :
  11. : 11 :
  12. द्वितीय परिच्छेद
  13. : 2 :
  14. : 3 :
  15. : 4 :
  16. : 5 :
  17. : 6 :
  18. : 7 :
  19. : 8 :
  20. : 9 :
  21. : 10 :
  22. तृतीय परिच्छेद
  23. : 2 :
  24. : 3 :
  25. : 4 :
  26. : 5 :
  27. : 6 :
  28. : 7 :
  29. : 8 :
  30. : 9 :
  31. : 10 :
  32. चतुर्थ परिच्छेद
  33. : 2 :
  34. : 3 :
  35. : 4 :
  36. : 5 :
  37. : 6 :
  38. : 7 :
  39. : 8 :
  40. : 9 :
  41. : 10 :

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