उपन्यास >> अंधकार अंधकारगुरुदत्त
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गुरुदत्त का सामाजिक उपन्यास
"मैने इसें बात पर विचार किया है और मेरी एक सखी नलिनी से मेरी लड़ाई-हंसी कारण हुई है। मैं उसके घर प्राय: जाया करती थी। उसका पति बहुत ही हंसमुख है और मुझे उससे बातें करने में रस आया करता था। नलिनी को यह समझ आया कि मैं उसके पति को उसरो बांट लेना चाहती हूँ और वह मुझसे ईर्ष्या करने लगी और अंत में लड़ पड़ी।
''मेरे मन में तो कुछ वैसी बात थी नही। यही बात रामजी ने बतायी तो मैंने आज अपने मन को टटोला है। मुझे कुछ ऐसा प्रतीत हो रहा है कि मैं भी बूआ की भांति रामजी से परिवार चलाने की बात विचार कर रही हूं।"
"पर वह तुम्हारा भाई लगता है।''
''बूआ! यह बात अब विचारणीय हो गयी है। अभी तक तो मेरा मन कहता है कि वह मेरा भाई नहीं है। इस पर भी मैं विचार करती हूं कि भूमि हमारे परिवार की अवश्य है, परंतु वह पेड़ किसी बाहरी बीज से बना है। बीज से ही पेड़ जाति जानी जाती है, भूमि से नहीं। अभी तक मुझे कुछ ऐसा ही समझ आया है कि एक ही खेत की भूमि पर देसी और विलायती टमाटर लगाने का प्रबध हो रहा है।"
तारकेश्वरी की हंसी निकल गयी। उसने हंसते हुए कहा, "तो तुम्हें राम केवल टमाटर का पौधा दिखायी देता है?''
प्रियवदना भो अपने कथन का आशय समझ हंसने लगी। हंस कर बोली, "बूआ! यह तो एक उपमा मात्रे है। मैं भी तो एक भूमि का 'प्लाट' नहीं हूँ।"
''नही; मेरा यह आशय नही।" तारकेश्वरी ने अपने भावों को व्यक्त करते हुए कहा, "मेरे कहने का अभिप्राय यह है कि शास्त्र में यह विवाह वजिंत है।"
''बूआ! मैंनै न तो शास्त्र पड़े हैं और न ही सब शास्त्रों को सत्य मानती हूँ। मैं रामजी से विवाह करना चाहती हूँ। यदि तुम स्वी कृति दोगी तब भी और स्वीकृति नहीं दोगी तब भी।"
''और यदि वह नहीं मानेगा तो क्या करोगी?''
"वह कैसे नहीं मानेगा? किस हाड़-चाम के जीव में काम का विरोध करने की शक्ति है?''
''लिखा है कि भगवान् शिव में थी।"
''राम, भगवान् नहीं है?''
''मैं यही विचार कर रही हूँ कि राम की आँखों का आपरेशन हो जाये और यदि ईश्वर की कृपा हो तो वह तुमको देख ले और तब तुमसे विवाह हो सके तो हो जाये।"
तारकेश्वरी का यह अभिप्राय था कि इस चक्षुविहीन अवस्था में विवाह के किसी धन्य प्रस्ताव कैं अभाव में वह प्रियवदना के जाल में फंस जायगा। अत: यदि दृष्टि मिल सके तो वह इस लड़की से विवश नहीं किया जा सकेगा।
''बूआ! आख का आपरेशन कराते हुए ध्रुत्यु भी तो हो सकती है।" प्रियवदना इतने सुन्दर शरीर के विनष्ट हो जाने की सम्भावना पर भयभीत हो गई।
''हां, परंतु अन्धे से अन्धेरे कुएं में ईट फिकवानी मुझे ठीक प्रतीत नहीं हो रहा।"
''नहीं बूआ! जो जैसा है उसे वैसा ही रहने दो।"
"पर देखो, यदि तुमने उस पर बलात्कार किया तो मेरे घर में नहीं रह सकोगी।"
''तो हम अपना पृथक घर बना लेंगे।"
"मैं चाहती हूं कि घर पहले बनाओ और फिर यदि वह तुम्हारे घर में जाना चाहे तो ले जाओ। परंतु एक चक्षुविहीन प्राणी पर एक त्रिया का आनक्रमरग इस घर में रुचिकर नहीं होगा।"
प्रियवदना कितनी ही देर तक अपनी बूआ का मुख देखती रही और मन में अपने भावों का विश्लेषण करती रही। तदनन्तर एकाएक उठती हुई कहने लगी, "बूआ! तुम ठीक कहती हो। मैं अपना पृथक् घर ले रही हूं।"
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- प्रथम परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :
- : 11 :
- द्वितीय परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :
- तृतीय परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :
- चतुर्थ परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :