उपन्यास >> अंधकार अंधकारगुरुदत्त
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गुरुदत्त का सामाजिक उपन्यास
"यही कि बूआ की किसी परिचित स्त्री का वह पुत्र है और चक्षुविहीन होने से सांसारिक व्यवहार में एक व्यर्थ कोई वस्तु समझ किसी साधुओं के आश्रम में छोड़ दिया गया था। बूआ की दृष्टि उस पर पडी है और उसके शारीरिक सौन्दर्य से आकर्षित हो उसे घर ले आयी हैं।"
''प्रियम्! यह पूर्ण सत्य नहीं है। बात यह है कि एक समय एक साधु अहमदाबाद में घूमते हुए आ पहुंचे थे। मैं एक-दो बार सीतला मन्दिर में उनका प्रवचन सुनने गयी थी। मैं उन पर मोहित हो गयी और अपने मन की अवस्था को समझ उनसे शिष्या बना लेने की याचना करने लगी। मैंने एक दिन उनको मध्याह्न के भोजन पर वर आमन्त्रित किया और उनसे गुरु बन जाने की याचना की। वह हंस पड़े और बोले, "तुम अपने मन की बात को समझ नहीं रही। वास्तव में तुम सन्तान की इच्छा कर रही हो। मैं इसके लिये अपने मन को तैयार नहीं कर सकी।
''मेरे मन में प्रकाश होने लगा। उस दिन मैं मौन हो विचार करती रही, परंतु मुझे साधु महाराज की बात सत्य प्रतीत हुई और फिर मैं उनके पास सन्तान याचना करने जा पहुँची। वह मान गये और मुझे यह संतान दे गये।
''पिताजी ने इसके विनष्ट कर देने के लिये सम्मति दी थी, परंतु मैं नहीं मानी और इसके जन्म तथा पालनका प्रबंध धनवती के हरिद्वार वाले मकान में हुआ है।
''पिताजी इसे घर लाने के लिये तैयार नहीं होते थे और न ही वह मुझे इसे देखने के लिये जाने देते थे। वह यह कह बात टाल दिया करते थे कि लड़का अन्धा है, क्या करोगी उसे घर पर लाकर? "पिताजी के देहान्त पर उनकी सम्पत्ति का बटवारा होते ही मैं धनवती के पास पहुँची। इसने राम के गुणों का बखान किया तो मैं इसे ढूँढ़ने के लिये कह आयी। इस वर्ष चैत्र प्रतिपदा को मैं पुन: हरिद्वार गयी और इसे ढूंढने के लिये कुछ रुपये भी दे आयी थी। यह तो ईश्वरीय घटना ही है कि यह मिल गया और मैं इसे यहां ले आयी हूं।
''इससे सम्बन्ध में यह तुम्हारा भाई लगता है। अब बताओ कि तुम इसके पीछे किस निमित्त पड़ी हो? एक समय तो तुम इसके हरि कीर्तन का विरोध कर रही थीं। अब सुना है कि तुम प्रात: पांच बजे से पूर्व ही इसके कमरे में जा बैठती हो?''
''बूआ मैं अपने मन की बात जानती नहीं। वह बेजुबान है और अपनी अवस्था का ठीक-ठीक वर्णन करता नहीं, परन्तु मैं समझती हूँ कि मैं उसकी संगत में रस पाती हूं। प्रातः तीन बजे ही मेरी जाग खुल जाती है और मुझे पलंग काटता अनुभव होने लगता है। मैं स्नानादि से निवृत्त हो चार बजे रामजी के कमरे में जा पहुँचती हूं। कभी तो वह भी स्नानादि से निवृत्त हो आसन पर बैठा मिलता है और कभी स्नान कर वस्त्र पह्न रहा होता है। मैं चुपचाप एक कोने में बैठी उसके दर्शन कर आनन्दित होती रहती हूं।
''वहं मंत्र, स्तोत्र गाता है और मनन कीर्तन भी करता है। मुझे वह केवल अर्थहीन ही लगता है। मैं शब्दों को भी सुन तथा समझ नहीं पाती, परंतु मुझे उनके। शरीर से एक अद्वितीय प्रकाश निकल रहा प्रतीत होता है और उसी प्रकाश से आकर्षित मैं वहां पहुंच जाती हूं।"
आज मुझे एक अन्य बात प्रतीत हुई है। वह मैंने रामजी से पूछो। मैंने पूछा था कि उनके शरीर से उद्भासित होने वाला प्रकाश किसी दूसरे की उपस्थिति में विलीन क्यों हो जाता है?''
''रामजी का कहना है कि ऐसी कोई बात नहीं। यह मेरे मन की अवस्था ही है जो किसी की उपस्थिति में बदल जाती है। वास्तव मेँ मैँ दूसरों से ईर्ष्या करने लगी हूं। उनके दर्शन को मैं किसी दूसरे से बांट कर ग्रहण नही कर सकती।
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- प्रथम परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :
- : 11 :
- द्वितीय परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :
- तृतीय परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :
- चतुर्थ परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :