उपन्यास >> शोध शोधतसलीमा नसरीन
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तसलीमा नसरीन का एक और पठनीय उपन्यास
जब हमारे ब्याह की बात चल रही थी, हारुन ने जो पहला सवाल किया था, वह था, 'मेहर कितना तय होगा?'
हारुन मेहर के बारे में सोच-सोचकर परेशान है, यह जानकर मैं बेतरह अवाक् हुई थी।
"एक पैसा भी नहीं-'मैंने जवाब दिया था।
हारुन भी अचकचा गया, 'भई लड़की या लड़की वाले तो मेहर के रुपए बढ़ाने की कोशिश करते हैं।'
मैंने हँसकर जवाब दिया, 'देखो, तुम्हारी और मेरी ज़िन्दगी से रुपए-पैसों का कोई वास्ता नहीं है, प्यार का रिश्ता है! जिस दिन प्यार ख़त्म हो जाएगा, रिश्ता टूट जाएगा। तुम्हें विश्वास है कि मैं किसी दिन तुमसे मेहर के रुपयों का दावा करूँगी?'
मेरी बात सुनकर हारुन बेभाव ख़ुश हो उठा था।
मेरी एक हथेली खींचकर, उसने अपने हजामत बनाए हुए नीले-नीले गाल पर फेरते हुए कहा, 'तुम न बिल्कुल और किस्म की लड़की हो, इसीलिए तो तुम मुझे भा गई।'
उस दिन हारुन मारे आवेग के थरथरा उठा था। मेहर में एक भी पैसा न देने के आवेग से!
'सुनो, मुझे तुम चाहिए, बिल्कुल अपनी बनकर! पूरी तौर पर मेरी अपनी!'
मैंने हारुन की भूल सुधारते हुए जवाब दिया, 'मैं, मैं ही हूँ; तुम, तुम ही हो; प्यार कभी दो लोगों को एक-दूसरे की ज़ायदाद नहीं बनाता।'
वे सब पुराने दिन! गुज़रे हुए दिन! वे तमाम दिन, जब मैं मेरुदण्ड सीधी रखकर बातचीत करती थी; मिलती-जुलती थी! वे दिन अब बूँद-बूँद चाँद की तरह मेरे तन-बदन पर टपक रहे थे। हारुन मेरी बग़ल में, अँधेरा ओढ़े सोया रहा।
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