उपन्यास >> अंधकार अंधकारगुरुदत्त
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गुरुदत्त का सामाजिक उपन्यास
''जी! परंतु क्या प्रयोजन है आपका, मेरे विषय में यह सब जानने का?"
"प्रयोजन तो है। देखो, नाम से मैं जानना चाहता हूं कि किस जाति-बिरादरी के हो। पत्नी के होने से मेरा प्रयोजन है कि घर में कोई दया की मूर्ति है अथवा नहीं?''
"मेरा नाम विष्णुदत्त है। जन्म से बाह्मण हूँ, काम दुकानदार का करता हूं। पत्नी का नाम धनवती है। वह भी ब्राह्मण कन्या है, परंतु एक निर्धन दुकानदार की पत्नी होने से सुघर और दयावान् हो गयी हे। हमारे घर में संतान नहीं है।"
इस समय विष्णुदत्त उठा तो सेठ भी उठ पड़ा और विष्णुदत्त के साथ चल पड़ा। सेठ ने कहा, "मैं एक योजना मन में बना रहा था और उस योजना में किसी सहायक की खोज में हूँ। कई दिन की खोज के उपरांत आज तुम बाह्य लक्षणों से उपयुक्त सहायक समझ आये हो।"
"किस कार्य में सहायक चाहते हैं?"
"यह तुम्हारी पत्नी के सम्मुख बता सकता हूँ। एक स्त्री के लिये सहानुभूति की मांग एक स्त्री से ही की जा सकती है।"
विष्णुदत्त इसका अर्थ समझने का यत्न करता रहा और दोनों चुपचाप घाट से निकल भीमगोडे की ओर चल पड़े। ऋषिकेश की सड़क पर जहां मकान विरले रह गये थे, एक पुराने ढंग के बने मकान के बाहर हलवाई की दुकान थी। वह विष्णुदत्त की दुकान थी। गंगा जल जो विष्णुदत्त एक लोटे में लाया था, दुकान के बाहर छिड़क दिया और विष्णुदत्त ने दुकान खोली और बासी मिठाई इत्यादि लगाने लगा। चाय-पानी का भी प्रबन्ध था। दुकान लग गयीतो मकान के भीतर से एक स्त्री बाहर निकल आयी और पति के पीने के लिए चाय तथा खाने के लिए एक परांठा ले आयी।
विष्णुदत्त की दुकान पर कोई उपयुक्त स्थान बैठने का न देख सेठ अभी तक दुकान के आगे खड़ा था। विष्णुदत्त ने अपनी पत्नी का परिचय करा दिया, "सेठजी! यह है मेरी पत्नी धनवती। अब बताइये कि आप क्या चाहते हैं?''
सेठ ने अपना परिचय दिये बिना कहा, "मुझ पर एक भारी मुसीबत आन पड़ी है। मेरी विधवा लड़की गर्भ धारण कर बैठी है और वह गर्भपात करना नहीं चाहती। इसे वह घोर पाप मानती है। अत: उसे घर से दूर किसी स्थान पर प्रसव के दिनों में रखना चाहता हूं।"
"पर हम तो बहुत निर्धन हैं। बहुत कठिनाई से अपना ही जीवन यापन कर पाते हैं।" धनवती का कहना था।
''इसका प्रबंध तो हो जायेगा और यदि आपने उपयुक्त सहायता दी तो आपकी आर्थिक स्थिति सुधरेगी ही।''
''आपकी लड़की को देख लूं और उससे बात कर लूं, तब ही कुछ आश्वासन दे सकती हूं। साथ ही आप हमारा मकान देख लें। उसमें लड़की को रहना होगा और फिर प्रसव भी यहां ही होगा।''
"मकान मेरी लड़की देख लेगी। रहना उसे है। मैं तो देखना चाहता था कि कोई भली स्त्री सेवा-कार्य के लिये मिल जाये तो उसके चरण धो-धो पियूंगा।''
''ठीक है, लड़की को ले आइये। कहां है वह?''
''रेल के स्टेशन के सामने एक धर्मशाला में ठहरी है।"
''तो ले आइये। शेष बात पीछे ही होगी।''
जब सेठ चला गया तो विष्णुदत्त ने पूछ लिया, "तो तुम इस पाप के बोझ को वहन करोगी?''
''जब लड़की गर्भपात नहीं चाहती तो यह पाप का परिणाम नहीं हो सकता। यह शुद्ध प्रेम का फल ही समझती हूँ।''
विष्णुदत्त पत्नी की ऐसी बात सुन चुप कर गया। एक घण्टे के भीतर ही सेठ एक मोटर गाड़ी में विष्णुदत्त की दुकान के बाहर आ खड़ा हुआ। वह एक बढ़िया मोटरगाड़ी से एक अति सुन्दर लड़की को उतरते देख दुकान से उठा और पिता-पुत्री को भीतर मकान में ले गया।
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- प्रथम परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :
- : 11 :
- द्वितीय परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :
- तृतीय परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :
- चतुर्थ परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :