लोगों की राय

उपन्यास >> अंधकार

अंधकार

गुरुदत्त

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16148
आईएसबीएन :000000000

Like this Hindi book 0

गुरुदत्त का सामाजिक उपन्यास

"क्या?''

"मेरा निर्वाचन रद्द कराने की याचिका की जाने वाली है।''

"क्यों?" सेठ कौड़ियामल्ल का प्रश्न था।

''यह कहा जा रहा है कि मैंने मज़हबी प्रचार करते हुए और साम्प्रदायिकता को भड़काते हुए निर्वाचन जीता है। यह संविधान के विरुद्ध है; अत: मेरे स्थान पर मुझसे कम मत लेने वाले प्रत्याशी को सफल घोषित सिद्ध किया जाये।"

''कौन पटीशन कर रहा है?''

"बाबू ज्योतिस्वरूप, जो प्रजा सोशलिस्ट पार्टी की ओर से खड़ा था।"

''तो राम एक मज़हब हो गया और रामभक्ति साम्प्रदायिकता हो गयी?"

''पिताजी! यह कानून है।"

इस पर सूरदास ने कह दिया, "भैया! इस अन्धकारपूर्ण कानून से देश का राज्य चलता है क्या?''

"देखो राम! यह अन्धकारपूर्ण है अथवा ज्योतिर्मय है, एक विवादस्पल बात है। बात यह है कि इस देश में राम के न मानने वाले भी रहते हें और वे नहीं चाहते कि राम के नाम पर राजनीति चलायी जाये।''

"यही तो कह रहा हूँ कि इस मूर्खों की मण्डली में जाने की क्या आवश्यकता पड़ गयी है प्रकाश भैया को?"

"आवश्यकता तो है। देश के राज्य में मैं भी सहयोग देना चाहता हूं।"

''क्या सहयोग देने जा रहे हो? यही न कि देशराम विहीन किया जाये। भैया मुझसे भारी भूल हुई है; परन्तु इस भूल में मेरा कुछ भी दोष नही है। मैं स्वयं किसी सभा में गया नहीं। जा सकता भी नहीं था। मेरी भूल यह हुई है कि मैंने यह जाने बिना कि तुम कहाँ जाने का यत्न कर रहे हो, तुम्हारी सहायता करने चल पड़ा था। जब तुमने बता या कि मेरे कारण तुम्हारे निर्वाचन में बाधा खड़ी हो रही है, मैंने जाना बन्द कर दिया।''

''यह मूल राम, तुम्हारी नहीं। यह तो मेरे हिन्दू परिवार में जन्म लेने से हुई है।"

सूरदास चुप कर गया। वह यह समझने लगा था कि निर्वाचन में सफल होनें और फिर उस सफलता को छिनती देखने से प्रकाशचन्द्र बौखला उठा है और उसमें विवेक नहीं रहा। परन्तु सूरदास अब क़ुछ दिन से विचार कर रहा था कि उसे बदायूँ से चला जाना चाहिए।

सुख-सुविधा का प्रलोभन तो यहाँ था ही। खाने-पीने में भी बढ़िया मिलता था, परन्तु इसके साथ अब कमला की भी बात थी। वह अपनी सेवा और निष्ठा से उसके मन पर छाती चली जा रही थी।

सेठ कौड़ियामल्ल ने कहा, "प्रकाश! तुम लोक सभा की सदस्यता से वंचित हो जाओगे तो ठीक ही होगा। बारह लाख रुपये का तुमने होम किया है। मैं तो समझा था कि इस होम से सुगन्धि उठेगी और लोक-कल्याण होगा, परन्तु इससे तो दुर्गन्ध उठने लगी है।

"यदि पटीशन की गयी तो तुमको यह कहना चाहिये कि राम नाम तो हमारे देश की विभूति है। तुम इसको छोड़ नहीं सकते। तुम

लोक सभा के सदस्य रहो अथवा न रहो, इसकी चिन्ता मत करो। चिन्ता करने की बात तो यह है कि इस देश में राम रहेगा अथवा नहीं?"

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. प्रथम परिच्छेद
  2. : 2 :
  3. : 3 :
  4. : 4 :
  5. : 5 :
  6. : 6 :
  7. : 7 :
  8. : 8 :
  9. : 9 :
  10. : 10 :
  11. : 11 :
  12. द्वितीय परिच्छेद
  13. : 2 :
  14. : 3 :
  15. : 4 :
  16. : 5 :
  17. : 6 :
  18. : 7 :
  19. : 8 :
  20. : 9 :
  21. : 10 :
  22. तृतीय परिच्छेद
  23. : 2 :
  24. : 3 :
  25. : 4 :
  26. : 5 :
  27. : 6 :
  28. : 7 :
  29. : 8 :
  30. : 9 :
  31. : 10 :
  32. चतुर्थ परिच्छेद
  33. : 2 :
  34. : 3 :
  35. : 4 :
  36. : 5 :
  37. : 6 :
  38. : 7 :
  39. : 8 :
  40. : 9 :
  41. : 10 :

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book