उपन्यास >> अंधकार अंधकारगुरुदत्त
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गुरुदत्त का सामाजिक उपन्यास
प्रकाशचन्द्र उठकर जाने लगा तो शर्माजी ने कह दिया, "देखिये प्रकाशचन्द्र जी। आपके क्षेत्र की राज्य विधान सभा के स्थानों के लिये गरीब कांग्रेसी खड़े किये जायेंगे। वे अपनी जेब से कुछ भी व्यय नहीं कर सकेंगे। साथ ही मैं एक निर्वाचन विशेषज्ञ आपके पास भेजूंगा। उसे आप अपना निर्वाचन एजैण्ट नियुक्त कर दें। तब सब कार्य सफलतापूर्वक चल सकेगा।"
प्रकाशचन्द्र लखनऊ में इसी मुलाकात के लिये आया हुआ था और 'कार्लुर्टन होट' में ठहरा हुआ था। उसने एक 'डब्बल रूम' ले रखा था। उसके कमरे का साथी एक नयनाभिराम नाम का सूरदास था। तीन नौकर भी साथ थे। एक तो उनकी सात सीट वाली 'शिवलेंट' मोटर गाड़ी का ड्राईवर था, दूसरा खिदमतगार था, तीसरा नौकर सूरदास का हाथ पकड़कर उसको घुमाने-फिराने के लिये था।
नौकर तो कमरे के बाहर बरामदे में सोते थे। सूरदास कमरे में दूसरे बिस्तर पर सोता था।
होटल में बैड रूम के बाहर ड्रायंग रूम था और उसके बाहर एक बहुत खुला बरामदा था। होटल के सामने घास का विस्तृत "लॉन था। बहुत सुन्दर दृश्य बन रहा था। लॉन के चारों ओर फूलों की क्यारियां और सरू के पेड़ लगे थे। बीच में एक फव्वारा था, जिससे चौबीस घन्टे जल प्रवाहित होता रहता था।
कमरे का भाड़ा चौसठ रुपया नित्य था। दो व्यक्ति का खाना भाड़े में ही मिलता था। प्रत्येक नौकर के लिये पांच-पांच रुपये नित्य के हिसाब से खाना नौकरों के खाने के कमरे में मिल जाता था।
इस प्रकार अग्रवाल साहब उन्नासी रुपये नित्य का होटल का बिल दे रहे थे और उनको लखनऊ में आये हुए सात दिन हो चुके थे। उस दिन शमजिी से भट के उपरान्त वे प्रसन्नचित्त लखनऊ विधान सभा भवन से निकले। वह समझ रहे थे कि सब व्यय किया धन और परिश्रम सकार्थ हो रहा हैं।
भवन से निकल मोटर में सैण्ट्रल बैंक की हजरतगंज शाखा में वे
जा पहुंचे। शाखा के मैंनेजर से मिलकर प्रकाशचन्द्र ने बताया कि वह
अग ले दिन दो लाख रुपये निकलवाना चाहता है।
शाखा के मैनेजर ने प्रकाशचन्द्र का खाता मंगवाया और यह देख कि उसका इससे अधिक रुपया बैंक में जमा है, पूछने लगा, "कैसे नोट लेगे?"
"सौ-सौ रुपये के।"
"मिल जायेंगे, परन्तु सुरक्षा का प्रबन्ध करके आइयेगा। जमाना टेढ़ा चल रहा है।"
"आप चिन्ता न करिय। मैं सब प्रबन्ध करके आऊंगा।"
इसके उपरान्त प्रकाशचन्द्र कार्लूर्टन होटल में जा पहुंचा। कमरे में उसने प्रवेश किया तो सूरदास ड्रायंग रूम में बैठा था। वह तानपुरे पर स्वर-साधना कर रहा था। प्रकाशचन्द्र ने द्वार का पद हटाया तो सूरदास ने सिर उठा द्वार की ओर देखा और पूछ लिया, "कौन?”
''राम, भैया। मैं प्रकाश हूँ।"
"आओ, क्या कर आये हो?"
"टिकट मिलने का वचन ले आया हूं।"
प्रकाशचन्द्र उसी सोफ़ा पर बैठ गया जिस पर सूरदास बैठा था। सूरदास ने पूछ लिया, "कब मिल जायेगा?”
"एक सप्ताह के भीतर।”
"अब क्या कार्यक्रम है?”
"कल तक यहां रहना होगा। परसों चलेंगें। टिकट मिलने तक हमें पिताजी से सम्मित कर निर्वाचन क्षेत्र के विषय में प्रबन्ध करना है। निर्वाचन क्षेत्र में घूमकर स्थानीय लोगों में से भी
सहायक खड़े करना है। राम भैया ! अब तुम्हारी बहुत आवश्यकता पड़ेगी।”
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- प्रथम परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :
- : 11 :
- द्वितीय परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :
- तृतीय परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :
- चतुर्थ परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :