उपन्यास >> अंधकार अंधकारगुरुदत्त
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गुरुदत्त का सामाजिक उपन्यास
''और यहां क्या कर रही थी बहन?"
''चोरी।''
''किसकी?"
''राम के दर्शनों के रस की।''
''पर बहन। इसके चोरी करने की आवश्यकता क्यों अनुभव हुई? यह तो सदा ही सुलभ है।"
''नहीं। जब राम एकान्त में होते हैं तो इनके मुख पर एक अलौकिक आभा आ जाती है। वह आभा उनके मुख से किसी दूसरे के समीप होने की अनुभूति होते ही विलीन हो जाती है। अभी-अभी जब राम चिन्तन करते हुए बैठे थे तो वह अलौकिकता मुख पर से फुट, पूर्ण कमरे को आलोकित कर रही थी, परन्तु पांव के मुझसे छते ही वह विलीन हो गयी है।
''इस कारण चोरी-चोरी ही उस रस का भान हो सकता है। राम! प्रातःकाल के समय भी जब तुम गा रहे थे मेरी हरि संग प्रीत भई, मैं इस पूर्ण कमरे में एक अलौकिकता अनुभव कर रही थी। जब तुम कह रहे थे-अंग संग सदा रहते हो, न महिमा जाय कही। तब राम के मुख पर सूर्य का प्रकाश दिखायी देने लगा था। कमरे में लगी बिजली की बत्ती उसके सम्मुख आभाविहीन हो गयी थी और जब राम गा रहा था-जबसे दर्शन सुलभ भये हूँ मैं गुंजन करत रही। मेरी हरि संग प्रीत भई। उस समय तो मेरे भी शरीर में झनझनाहट उत्पन्न हो रही थी। बूआ धनवती आयीं, परन्तु तुम्हारे मुख पर वह दिव्य ज्योति विराजमान रही। एकाएक वह खांस पड़ी और तूम फिर सामान्य राम भैया ही हो गये। वह सब कुछ विलीन हो गया जो मैं कुछ ही क्षण पूर्व देख रही थी।"
''कबसे तुम प्रातःकाल सुनने आती हो?"
''सुनने नहीं राम, देखने। आज एक सप्ताह से ऊपर हो गया है।"
"और यह विलक्षणता कब से देख रही हो?"
''जबसे आ रही हूँ। पहले दिन तो मैं तुमसे झगड़ा करने ही आयी थी, परन्तु जब कमरे में प्रविष्ट हुई तो मुझे कुछ प्रकाशमय, सुखमय चमत्कारपूर्ण और अवर्णनीय दिखायी दिया। मैं स्तब्ध खड़ी रह गयी। तुम तो सामान्य प्रतीत नहीं होते थे। उसके उपरान्त दिन के उपरांत दिन, चुम्बक की ओर लौह कण की भान्ति मैं खिंची चली आती हूं। केवल एक बात समझ नहीं आती। जब तुम किसी दूसरे की उपस्थिति अनुभव करते हो तो सब कुछ सामान्य हो जाता है।''
सूरदास ने मुस्कराते हुए कहा, "तुम ठीक समझी हो बहन।''
"पर मैं तो कुछ भी नहीं समझी।"
''हां, तुमने ठीक देरवा है। समझ भी जाओगी। कारण यह कि जो तुम शब्दों में वर्णन कर रही हो, वह मैं अपनी अन्तरात्मा में अनुमव करता हूँ। ईस अनुभूति को में समझ भी रहा हूं, परन्तु शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकता।"
वैसे तारकेश्वर और धनवती भी देख रही थीं कि पहले दिन की प्रतिक्रिया के उपरान्त प्रतिक्रिया की दिशा बदल रही है। वह अपने सांसारिक ज्ञान के आधार पर यह समझने लगी थी कि दोनों में यौन आकर्षण उत्पन्न हो रहा है। आकर्षण तो उस समय भी था जब वह सूरदास से लड़ने को उद्यत हो गयी थी, परंतु वह मनोद्गारो की प्रथम अनुभूति के कारण था।
तारकेश्वरी अपने आकर्षण की बात स्मरण कर यहां भी कुछ वैसे ही परिणामों की आशंका करने लगी थी। उसके मन में प्रथम प्रतिक्रिया तो यह हुई थी कि दोनों को सतर्क और सचेत कर देना चाहिये। उनका परस्पर बहन-भाई का सम्बन्ध है, परंतु वह विचार करती थी कि क्या जीव और जीव में भी बहन-भाई, माता-पुत्र इत्यादि का सम्बंध होता है। वह यह भली भान्ति समझती थी कि पति- पत्नी सम्बंध सामान्य शारीरिक सम्बंधों से सर्वथा विलक्षण होता है। अपने अनुभव से उसके मन में यह विचार उत्पन्न हुआ कि दोनों के मनों की भावना का अनुमान लगाने के उपरांत ही दोनों को इस पथ पर चलने की स्वीकृति अथवा अस्वीकृति दे सकती है।
अत: उसने धनवती से सम्मति की और फिर दोनों पृथक पृथक दोनों के मनोभावों का ज्ञान प्राप्त करने का निर्णय कर बैठीं।
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- प्रथम परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :
- : 11 :
- द्वितीय परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :
- तृतीय परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :
- चतुर्थ परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :