उपन्यास >> अंधकार अंधकारगुरुदत्त
|
0 |
गुरुदत्त का सामाजिक उपन्यास
नित्य प्रात: चार बजे स्नान सन्ध्या मे निवृत्त हो वह अपने आसन पर बैठ जाया करता था और स्वर सहित ईशावास्योपनिषद् का पाठ आरम्भ हो जाया करता था।
इस उपनिषद् पाठ के उपरान्त वह राम गुण गान में लग जाता था। उसके राम नाम के कीर्तन से घर भर के प्राणी जाग जाया करते थे। सबके कार्यक्रम में अन्तर पड रहा था। सबसे अधिक परिर्वतन हो रहा था प्रियवदना में।
प्रियवदना कुछ संगीत का ज्ञान और उसमें रुचि रखती थी। अत: उसका सूरदास की मधुर स्वर भंगी से प्रभावित होना स्वाभाविक ही था।
पहले दिन तो सूरदास के संगीत के होने पर भी वह पतंग पर करवटें लेती रही थी, परन्तु सो नहीं सकी थी। वह पलंग पर से नीचे तो अपने नियत समय सात बजने पर ही उतरी थी। स्नान आदि से छुट्टी पा अल्पाहार ले उसे नौ बजे दुकान पर जाना होता था और वह भाग-दौड़ कर ही समय पर तैयार हुआ करती थी। इससे वह उस समय तो सूरदास से संगीत के विषय पर बात नहींकर सकी।
परन्तु मध्याह्ननोत्तर जब वह 'लंच' के उपरान्त विश्राम कर चुकी तो अपनी शिकायत लेकर उसके पास जा पहुँची। सूरदास अब पुन: स्वर बैठा रहा था।
''भैया राम! किसी अच्छी वस्तु का भी सीमा से अधिक प्रयोग हानिकर होता है।" प्रियवदना ने उसके कमरे में प्रवेश करते हुए कहा।
''परन्तु बहन प्रियवदना!" सूरदास ने मुस्कराते हुए कहा, "सीमा कहां है? यहो तो विवाद है।''
''बस एक घण्टा प्रात: और एक घण्टा सायंकाल।"
''और सोने की क्या सीमा है?'' सूरदास ने पूछ लिया।
''जब तक पलंग काटने न लगे। देखो भैया! हम लोग जंगल में नहीं रह रहे। यह नगर है। यहां बहुत लोग किसी कारणवश एकत्रित हो रहे है। अत: मनुष्य के कामों की परिधि दूसरों के सुख और आराम से बनती है। किसी के सोने से किसी दूसरे को सुख, दुःख नही होता। सोने वाला स्वयं ही सोने की अवधि निश्चय करता है, परन्तु भैया! संगीत का शोर तो दूसरों के सुख-सुविधा से सम्बन्ध रखता है।"
"परन्तु क्या इसका दूसरों से सम्बन्ध भंग नहीं किया जा सकता?"
''यह कैसे हो सकता है?"
''इसका प्रबन्ध मैं कर लूंगा। एक बात तो हो सकता है कि शब्द का मुख बन्द किया जा सकता है।"
"शब्द का अथवा शब्द करने वाले का?''
''शब्द का।"
"यह कैसे?''
''इस पर विचार करने की आवश्यकता है। पर अब बताओ, इस समय मेरा संगीत भी बहन प्रियवदना के सुख सुविधा में बाधक होगा?''
''हां। इस समय मैं भैया राम से कुछ बातें करने आयी हूं।''
''तो करो।'' राम ने तानपुरा एक ओर रख दिया।
''मैं भैया राम का इतिहास जानने आयी हूं।"
"यह तो बहुत ही स्पष्ट है। सुबह होती है, शाम होती है यू ही ज़िन्दगी तमाम होती है।"
''परन्तु भैया! सुबह और शाम का ज्ञान कैसे होता है?''
''यह माँ तथा बहनों के जागने, खाने-पीने से पता चलता है।"
"परन्तु आज तो आपकी सुबह बिना हम सबके जागे हो गयी थी।"
|
- प्रथम परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :
- : 11 :
- द्वितीय परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :
- तृतीय परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :
- चतुर्थ परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :