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मुद्राराक्षस संकलित कहानियां

मुद्राराक्षस

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :203
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7243
आईएसबीएन :978-81-237-5335

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कथाकार द्वारा चुनी गई सोलह कहानियों का संकलन...


इस बात पर एक-दो और लोग भी एक फीकी-सी हंसी हंसे, पर जो सज्जन उन्हें घसीटकर ला रहे थे, वे खासे गंभीर हो गए। जो स्थितियाँ थीं, उन्हें देखते हुए लोग किसी हलकी बात के लिए जगह बनाने को तैयार नहीं थे। वहां ज्यादातर लोग पानी या शौचालय जैसी चीजों को लेकर परेशान थे। इन्हीं जरूरतों तक वे सीमित भी रहना चाहते थे, पर यही समस्या सबसे पहले भयावह हुई। नलों में आने वाले जिस पानी को लेकर लोग निश्चिंत थे, वह जल्दी ही समाप्त हो गया और तब लोगों को लगा कि जिन्होंने उसका इस्तेमाल नहाने के लिए किया था, उन्होंने अपने उत्साह में बाकी सबको संकट में डाल दिया था। अभी काफी लोग निवृत्त होने के इंतजार में थे। शालीनतावश उन्हें शौचालय जाने में पहल करते संकोच हुआ था, पर पानी खत्म होने की सूचना पर वह शालीनता यकायक समाप्त हो गई। शौचालय झाँककर बदबू के कारण पीछे हट आए किसी ने ऊँची खीझी आवाज में कहा, "आखिर अभी नहाना कौन-सा बहुत जरूरी हो गया था, ऐं?"

जो नहा चुके थे वे धीरे से खुले आँगन की तरफ जा खड़े हुए। वहां एक शोर उठ खड़ा हुआ। कई लोग गुस्सा जाहिर करने लगे।

तभी एक आवाज आई, "देखिए, अब जो हुआ सो हुआ। सवाल है कि पानी की समस्या हल हो तो कैसे?"

"ये अच्छी रही। जब यहां ऐसे बुद्धिमान लोग मौजूद हैं, जो हालात जानते हुए भी पानी नहाने में खर्च करने की ऐयाशी नहीं भूलते, तो समस्या का हल क्या होगा?" किसी ने ऊंची आवाज में कहा।

पहला व्यक्ति ही फिर बोला, "हल निकलेगा क्यों नहीं? जिन्होंने हमें यहां इस तरह कैद किया है, उनकी भी तो कोई जिम्मेदारी है।"

इस बीच किसी ने शौच का हल निकाल लिया। उसे अपनी खोज पर आर्केमिडीज से कम खुशी नहीं हुई। जब तक लोग उस समाधान को समझ पाएँ, वह बेहद उत्साहित व्यक्ति कुछ खोजने लगा। वहां किसी का भी नाम जानने की किसी को न फुर्सत थी न जरूरत, पर उस आदमी को बहुत लोग पहचानने लगे थे। जब-तब वह किसी को भी पकड़ लेता था और समझाने की कोशिश करता था कि उसकी बीवी और बच्चियों पर बड़ा जुल्म ढाया गया। यह वही व्यक्ति था। जल्दी ही उसे बागबानी का एक औजार मिल गया। आँगन के दो तरफ ऊंची दीवार से लगी काफी चौड़ी क्यारियाँ थीं, जिनमें कुछ झुलसे हुए पौधे लगे थे। दीवार पर चढ़ी लतरें भी खासी जल चुकी थीं। वह व्यक्ति कच्ची जमीन खोदने लगा। खोदते हुए बोला, 'खुड्डी की तरह इस्तेमाल करो और इसी मिट्टी से ढक दो। बात खत्म। कच्ची जमीन बहुत काफी है। अब सहना तो पड़ेगा ही। क्या बताऊँ, मेरी बीवी और बच्चों के साथ जो हुआ..."

नहाने को लेकर बढ़ता झगड़ा यकायक थम गया। लोग उत्सुक होकर उस आदमी को देखने लगे।

तभी किसी ने कहा, "खुड्डी तो ठीक है, पर पानी का क्या होगा?"

एक बार फिर वहां सन्नाटा हो गया।

वहां मुश्किलें सिर्फ इतनी ही नहीं थी, बल्कि यह शुरुआत थी। शायद बहुत मामूली शुरुआत। हममें से बहुत-से लोग बात करते रहे थे कि अगर इनका राज आ गया तो सबसे पहले हम पर चोट की जाएगी। जिस तरह हमारे घरों पर हमला हुआ था, हम समझ रहे थे कि आगे की घटनाएँ उसी के आसपास की होंगी, यानी धक्का-मुक्की, कुछ पिटाई, गालियाँ और अपमान के कुछ दूसर तरीके अपनाए जाएंगे और फिर शायद उन लोगों का मन भर जाए। वैसे बहुत-से लोगों को तो यह सब कुछ होने की भी उम्मीद नहीं थी। महाशय जी जैसे लोग बाकायदा कहते थे कि सत्ता में आने के बाद राजसी सुविधाओं में ये लोग इतने व्यस्त हो जाएँगे कि यह सब उन्हें याद भी नहीं रह जाएगा।

पर यह सब शायद उन्हें याद रखने की जरूरत भी नहीं थी। यह याद रखा उन लोगों ने, जिनकी ओर से वे सत्ता में आए थे। जो सरकार चला रहे थे, वे सचमुच इस मामले में बड़े मासूम थे। उन्होंने तत्काल बयान भी दे दिया था कि जो कुछ हो रहा था, वह उनके एजेंडे में नहीं था। लेकिन पार्टी ने कहा कि उसके एजेंडे में यह सब है और भरपूर है। पहले दौर में उन लोगों ने कुछ संस्थाएँ अपने हाथ में ले लीं, जैसे रेडियो, टी.वी, विश्वविद्यालय, अकादमियाँ वगैरह। उनमें मारपीट या जोर-जबरदस्ती कोई नहीं हुई, बस वे जगहें पार्टी के लोगों ने ले लीं। बहुत 'विनम्रता' से। इस पर हम लोगों ने खासा बड़ा प्रतिवाद किया। कुछ प्रदर्शन हुए, धरने दिए गए, भाषण हुए। बहुत जगह बहुत-से लोगों ने इस स्थिति के विरुद्ध लिखा भी।

और फिर यकायक अँधेरा हो गया। अखबारों में इस तरह का कुछ भी छपना बंद हो गया। इसके साथ ही सड़कों, गलियों, मुहल्लों में एक खास तरह की हलचल शुरू हो गई। कुछ लड़कों का गिरोह किसी भी मुहल्ले से खासी ऊंची आवाज में ठहाके लगाता हुआ गुजर जाता। चौराहों पर ऊंची आवाज वाले लाउडस्पीकर लग गए थे, उन पर यकायक भजन शुरू होता और धार्मिक नारे लगने लगते। कोई नहीं जानता था कि ये आवाजें कहां से आती थीं। कभी-कभी किसी घबराए, अकेले व्यक्ति को घेरकर लड़के कुछ देर तक शोरगुल करते थे और फिर उसकी लुंगी या पायजामा उतरवा लेते थे। उसके नंगे हो जाने पर शोर मचाते हुए वे उसे वहां से दौड़ा देते थे। यह एक तरह की कोशिश थी कि कोई जवाबी कार्यवाही हो। वह हुई। किसी ने इस तरह घिरने के पहले ही उन लड़कों की तरफ एक सस्ता-सा हथगोला उछाल दिया।

यह थी वह घटना, जिसका उन्हें इंतजार था। छत से हम लोगों ने कई रोज देखा, रात के गहरे नीले आसमान पर थोड़ी देर जैसे कालिख-सी पुतती थी और फिर उस कालिख के बीच से सुर्ख पीली रोशनी उभर आती थी। घर इसी तरह जलते थे। जाहिर है, नसीम साहब का मकान भी ऐसे ही जला होगा।

हर किसी को इतनी उम्मीद जरूर थी कि इस कैद में देर से ही सही, वे लोग पानी और खाने का कुछ इंतजाम जरूर करेंगे, पर ऐसा कुछ होता नजर नहीं आया। बहुत ज्यादा गर्मी और ठहरी हुई हवा से बेहाल लोगों ने देखा, दोपहर के बाद आसमान पर बादल आए और ठहर गए। हमें लगा, शायद बारिश हो। गर्मी से राहत तो मिलती ही, शायद वह बारिश का पानी किसी तरह पीने के काम भी आ जाता। पर बादल ज्यों के त्यों ठहरे रहे, जैसे किसी खाने की चीज पर फफूंद जम गई हो। चिकनी, जहरीली।

विश्वविद्यालय के अध्यापक नेता मोहनलाल ने फिर वही बात दुहराई, "हम युद्धबंदी हैं आखिर। हमारे साथ ऐसा सुलूक कैसे किया जा सकता है?"

सुबह से वे बहुत बार यह बात दुहरा चुके थे। सब जानते थे कि जो हो रहा है वह सही नहीं है, पर इसका प्रतिवाद किया जाए तो कैसे, इस बात का फैसला अभी कोई नहीं कर पाया था।

धुंधलका होने लगा था और अंदर तक उबाल देने वाली उमस भरी गर्मी को घेरकर खड़ी हवा बिल्कुल स्तब्ध हो गई थी। भूख और प्यास से परेशान लोग एक बार फिर बैठ जाने या लेट जाने के लिए जगह खोजने लगे, लेकिन एक-दूसरे से बचते हुए। लगभग सब लोग यह समझ गए थे कि वे युद्धबंदी तो नहीं ही हैं। उस सन्नाटे में एक आवाज उभरी, "लानत है! शर्म की बात है! हमलोग इस तरह भेड़-बकरियों की तरह यहां बंद कर दिए गए हैं। अरे, कुछ तो कर सकते थे हमलोग। कुछ हाथ-पैर तो चला सकते थे।"

यह विश्वविद्यालय के कुलसचिव मुनीसिंह थे, पर उनकी इस आवाज में एक विचित्र खोखलापन था। लोगों ने बिना किसी प्रतिक्रिया के यह बात सुन ली। सिर्फ महाशय जी ने धीरे से चेहरा घुमाकर मुख्य दरवाजे पर जड़े तख्तों की तरफ देखा, जैसे उन्हें उस पार से किसी प्रतिक्रिया की उम्मीद हो। पर बाहर से कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। और अब मैंने गौर किया, वहां भी बिल्कुल सन्नाटा था। शाम की वह प्रार्थना भी नहीं सुन पड़ी थी। क्या अब इसके बाद वैसे ही ठहाके सुन पड़ेंगे, जैसे पिछले दिनों हमलोग सुनते थे? गली या सड़क शाम से ही खामोश हो जाया करती थी और फिर अंधेरा बढ़ जाने पर बहत-से लोग बेहद घिनौनी, लगभग प्रेतात्माओं वाली हँसी हँसते हुए गुजर जाते थे। हर दरवाजे और खिड़की की संधियों से एक सनसनी खामोश घरों के अंदर देर तक घुसती रहती थी। ऐसे मौके पर मेरी बीवी जानबूझकर थोड़ा पैर पटककर चलती थी या कोई बर्तन जोर से आवाज करते हुए रखती थी ताकि अपनी तरफ से मुझे थोड़ी निश्चितता दे दे।

अचानक मुझे उसकी याद आ गई। कहां, किस हालत में होगी वह? औरतों के साथ इन लोगों की बर्बरता के बहुत-से किस्से सन चुका था। जिस अमानुषिक तरीके से इन लोगों ने हमारे घरों पर हमला किया था. उसे देखते हुए उनसे किसा तरह की मानवीयता की उम्मीद तो नहीं ही की जा सकती थी। पर क्या हुआ होगा उसका? क्या उसे भी इसी तरह रखा गया होगा?

बाहर की खामोशी को एक खौफनाक उदंडता से तोड़ता हुआ नारा, किसी एक आदमी की आवाज में, सुनाई पड़ा, "वंदेमातरम्!" इसके उत्तर में कई आवाजें आई, "वंदेमातरम्!" बाबरी मस्जिद के खिलाफ अभियान के साथ यह नारा बड़े - पैमाने पर लगने लगा था, क्योंकि जिस किताब 'आनंदमठ' से इन लोगों ने यह नारा सीखा था, यहां इसे मुसलमानों के विरुद्ध युद्धघोष के रूप में इस्तेमाल किया गया था।

इस नारे के बाद इमारत के अंदर की कालिमा जैसे चमगादड़ों के गिरोह की तरह उड़ी और गहरी होती रात के कंधों पर जहां-तहां लटक गई। एक क्षण के लिए लोगों के रक्तप्रवाह में एक व्यतिक्रम हुआ और हम लोगों ने सुना, बाहर कोई कड़कती आवाज में आदेश दे रहा था, वैसा आदेश जैसा उन लोगों की सुबह की कवायदों में दिया जाता था। एक साथ कई लोगों के पैर पटककर लय-ताल से चलने की आवाजें आती रहीं। थोड़ी देर बाद सारी आवाजें बंद हो गई। उस सन्नाटे में दूर से कोई ट्रक जैसा आता सुन पड़ा। वह शायद वहीं आ रहा था। इमारत के निकट आकर थोड़ी देर वह ट्रक गुर्राता रहा, फिर बत्तियाँ भी बंद हो गईं और इंजन भी।

अंदर अंधेरे में किसी ने कहा, "लगता है, ये लोग हम लोगों को कहीं और ले जाने की तैयारी में हैं।"

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