कहानी संग्रह >> मुद्राराक्षस संकलित कहानियां मुद्राराक्षस संकलित कहानियांमुद्राराक्षस
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कथाकार द्वारा चुनी गई सोलह कहानियों का संकलन...
हमलावर इस बार वैसे नहीं थे, जो हथौड़ी या केले की चोरी का आरोप सुनकर
शर्मिंदा हो जाते।
छह दिसंबर को बाबरी मस्जिद टूटने के बाद देश में दंगाग्रस्त इलाकों का दौरा
करते वक्त हिंदू धर्मांधों की जो तस्वीर मुझे मिली थी, वह खासी ही डरावनी थी।
एक जगह तो उन्होंने बाकायदा कुछ औरतों के सारे कपड़े उतार लेने के बाद उन्हें
पीटते हुए सड़कों पर दौड़ाया था और बड़े इत्मीनान से इस दृश्य की फिल्म भी
तैयार की थी।
बाहर शायद पानी बरसना शुरू हो गया था। वहां बंद किए गए लोगों में से कुछ ताजी
हवा के लिए बरामदे में लेट गए होंगे। अब चूंकि पानी बरसने लगा था, इसलिए वे
दूसरों को खिसकाते हुए पीछे खिसक रहे थे।
बारिश की वजह से ध्यान बंट गया। मैं यह उम्मीद भी करने लगा कि पानी थोड़ा
ज्यादा बरसने पर गर्मी से कुछ राहत मिलेगी। यह सोचते-सोचते मुझे नींद आ गई।
और तब मैंने एक बार फिर वही सपना देखा. जिसे मैं न जाने कितने बरसों से देखता
आ रहा था। यह सपना साल-दो साल में जरूर दिखाई देता रहा है। कभी-कभी कुछ जल्दी
भी।
सपना लगभग अपनी संपूर्ण परिणति तक दिखाई देता रहा है। वह इतना वास्तविक होता
है कि जग जाने के बाद भी जैसे छाती पर बैठा रहता है, कभी-कभी तो कई-कई दिन
तक।
सपना समाप्त हो जाने पर ऐसा लगता है, जैसे एक बहुत लंबा जहरीला सौंप सरकता
हुआ गर्दन के ऊपर से निकल गया हो। नींद टूट जाने पर भी देर तक हिलने की इच्छा
नहीं होती।
ठीक हमेशा की तरह सपना मुझे अवसन्न, लेकिन जागा हुआ छोड़कर मेरी गर्दन से
सरकता हुआ निकल गया। उस साँप का स्पर्श. उसका ठंडा भय और उसकी निःशब्द घिसटन,
मैं पूरी तरह आँख खोले पड़ा हआ देर तक महसूस करता रहा।
अंधेरा कुछ कम हो गया था और बाहर से उन लोगों में से एक बहुत ऊंची आवाज में
इस सुर-ताल से मंत्र पढ़ने लगा, जैसे अजान दे रहा हो। ऐसे ढंग से मंत्र-पाठ
जीवन में मैंने पहली बार सुना। अजान की यह नकल खत्म होने के बाद रात वाली
प्रार्थना फिर दुहराई जाने लगी।
अब तक मेरी नींद पूरी तरह टूट चुकी थी, मगर ज्यादातर लोग मुझसे पहले ही जाग
चुके थे। वजह कुछ देर से ही पता चली। दरअसल हर कोई सुबह शौच के लिए चिंतित
था। उस विशाल इमारत में सात स्नानघरों में एक साथ सिर्फ सात लोग ही निवृत्त
हो सकते थे। यह गनीमत है कि हममें से हर किसी का ध्यान एक-दूसरे की शक्लें
देखकर बँट गया। उस मकान के हर कमरे, हर कोने में फैले जिस काले मलबे में
लोटकर हम लोगों ने रात बिताई थी, उसने हम सब पर बुरी तरह कालिख पोत दी थी।
अगर हम लोग हिल-इल न रहे होते तो हमारी हालत ऐसी हो चुकी थी, जैसे हमलोग जली
लकड़ियों के ढेर हों। तकलीफ और आतंक के उस माहौल में भी हम लोगों में से बहुत
लोग एक-दूसरे को देखकर हँसे।
उस जले मकान की लॉबी के सामने जिस मुख्य दरवाजे पर तख्ने जड़ दिए गए थे, वहा
किसी की ऊंची आवाज सुनाई दी, "अरे मूर्यो, मंत्र शद्ध तो पढ़ो! मर्ख अनपढ़ो,
अरे मंत्र भी शुद्ध नहीं पढ़ सकते तुम लोग!"
तभी एक थोड़ी दबी हुई आवाज आई, "छोड़िए भी महाशय जी, हमें क्या करना-अशुद्ध
मंत्र-पाठ करें या जो करें।"
"अरे वाह, कोई बात होती है!" रोकने वाले ने आवाज और ऊंची कर दी, "इनको ऋचाओं
को विगाड़ने का हक दिया किसने? जाहिलो, बंद करो यह मंत्र-पाठ का तमाशा!"
बाहर का वह मंत्र-पाठ इस आवाज से नहीं, पर थोड़ी देर में खुद ही बंद हो गया।
और तभी बाहर कोई दहाड़ती आवाज में बोला, “ये कौन साला बकवास कर रहा है?"
आवाज दबाकर बोलने वाले ने फिर कहा, “छोड़िए भी महाशय जी! आइए, इधर आइए। करने
दीजिए जो करते हैं।"
बाहर से वही दहाड़ती आवाज फिर सुनाई दी, "थोड़ा ठहर जाओ, तुम्हारी यह
नुक्ताचीनी हलक में न घुसेड़ दी तो हम काहे के..."
आवाज दवाकर बोलने वाला अशुद्ध मंत्र-पाठ की आलोचना करने वाले महाशय जी को
शायद अंदर की तरफ घसीट रहा था, "चलिए, चलिए, मैं कहता हूँ, क्यों उन लोगों के
मुँह लगते हैं। चलिए।"
कुछ दूसरी भी आवाजें आईं, “जाने दीजिए महाशय जी!"
कुछ कठिनाई से लोग जिन्हें लॉबी से बरामदे में लाए, उन्हें उनके ऊपर लिपटी
कालिख के बावजूद मैं पहचान गया। वे महाशय सदानंद शास्त्री थे, शहर की
आर्यसमाज नाम की संस्था के मंत्री। मुझे देखकर चौंके और बोले, "अरे भाई साहब,
आप भी?"
“यह तो मुझे पूछना चाहिए था आपसे। आप यहां कैसे?"
सहसा शास्त्री जी हंसे, “कमाल देखिए भाई साहब! कालिख हम सब पर पुती है और वे
बदमाश, जो अशुद्ध मंत्र-पाठ कर रहे हैं, साफ धुले घूम रहे होंगे।"
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