उपन्यास >> नारकीय नारकीयमुद्राराक्षस
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यह उपन्यास मुद्राराक्षस की लंबी लेखकीय यात्रा के रंग-बिरंगे अनुभवों पर आधारित है...
इस समय की असाधारण प्रतिभा मुद्राराक्षस साहित्य की सभी विधाओं में शिखर
की उपलब्धियों के लिए विख्यात हैं। कहानी, उपन्यास, नाटक, आलोचना आदि के
अलावा इतिहास, समाजशास्त्र और अर्थतंत्र पर अपने लेखन से उन्होंने समय और
समाज में उल्लेखनीय हस्तक्षेप किया है। समसामयिक राजनीति के वे अप्रतिम
टिप्पणीकार के रूप में जाने जाते रहे हैं। दलित प्रश्न को लेकर
मुद्राराक्षस के तीखे विवेचन के लिए अंबेडकर महासभा द्वारा दलित रत्न और
शूद्र महासभा द्वारा शूद्राचार्य की उपाधियाँ दी गईं। धर्मनिर्पेक्षता के
सवाल पर उनके द्वारा जनान्दोलनों में भागीदारी के लिए मुस्लिम बेदारी फोरम
द्वारा जनसम्मान दिया गया। हिंदी के इतिहास में वे अकेले ऐसे साहित्यकार
हैं जिन्हें जनसंगठनों ने सिक्कों से तोल कर सम्मानित किया है। प्रखर
वक्ता के अलावा वे व्यंग्यकार के रूप में खासे चर्चित रहे हैं। अपने जन
सरोकारों के लिए विख्यात मुद्राराक्षस ने ललित कलाओं में भी काम किया है।
अपनी अभिरुचियों में कुत्ते, बिल्लियों से गहरे लगाव के अलावा बाग़बानी का
शौक भी गहरा है। हाँ तीन चीज़ों से उन्हें घबराहट होती है– यात्रा, टेलीफोन और पत्रलेखन।
यह उपन्यास मुद्राराक्षस की लंबी लेखकीय यात्रा के रंग-बिरंगे अनुभवों पर आधारित है।
यह उपन्यास मुद्राराक्षस की लंबी लेखकीय यात्रा के रंग-बिरंगे अनुभवों पर आधारित है।
अलग-अलग साहित्यिक गोष्ठियाँ
लखनऊ में रटलेज रोड अब वाल्मीकि मार्ग हो चुका है। याद नहीं, इस छोटी-सी
सड़क पर जेल का दफ़्तर उन दिनों भी था या नहीं। तब यह सड़क बहुत शान्त थी।
इसी सड़क से पूरब की तरफ़ जो गली बसन्त सिनेमा की तरफ़ जाती थी, उसके दाईं
तरफ़ एक मकबरा था। यह एक सुपरिचित जगह थी क्योंकि उन दिनों इस मकबरे में
रहने वाले बहुत-से मध्यवर्गीय लोगों में से ही एक डॉ. देवराज भी यहीं रहते
थे। मकबरे में ईसाई परिवारों की बहुतायत थी।
उन दिनों में डी.ए.वी. कॉलेज में ग्यारहवें दर्ज़े में पढ़ रहा था। आर्य समाजियों के इस कॉलेज के पुस्तकालय में हिन्दी साहित्य की नयी किताबें बहुत बड़ी तादाद में थीं, निराला जी की किताबें छोड़ कर। निराला जी की किताबें श्रीराम रोड के तिराहे पर स्थित गंगा पुस्तक माला से खरीदी थीं, काफ़ी सस्ते दामों पर। निराला की किताबें कॉलेज के पुस्तकालय में शायद इसीलिए नहीं थीं कि वे बहुत कुख्यात या बदनाम थे और आर्य समाजी कॉलेज के शास्त्री बहुल अध्यापक समाज को शायद पसन्द नहीं आते होंगे। कॉलेज के पुस्तकालय में ही मैंने एक किताब देखी–‘छायावाद का पतन।’ पन्त, महादेवी, प्रसाद, निराला आदि को ले कर लिखी गयी इस किताब ने ख़ासी ही उत्सुकता पैदा की। उसी वर्ष मैं महादेवी, निराला और पन्त को इलाहाबाद में देख कर लौटा था और उस उम्र में उनसे यह भेंट तीर्थयात्रा से कम नहीं लग रही थी। ‘छायावाद का पतन’ जैसी किताब के लेखक से मिलने की उत्सुकता पैदा हुई। लेखक थे–डॉ. देवराज। मेरे घनिष्ठ मित्र, सहपाठी राजेन्द्र कुमार श्रीवास्तव ने जल्दी उनके घर का पता लगा लिया। हम दोनों इकट्ठे ही उनसे मिले। छोटी-सी चहारदीवारी से घिरे एक छोटे, लेखिन ख़ासे उजाड़ से बाग़ीचे को पार करके उनका वह कमरा था जिसमें बैठ कर वे लिखते-पढ़ते रहते थे। पीछे के कमरे के दरवाजे पर कभी-कभी उनकी दो बेटियों में से कोई एक चुपचाप आ कर खड़ी हो जाती थी फिर ग़ायब हो जाती थी। बड़ी बेटी नीरजा बाद में लखनऊ रंगमंच की बहुत अच्छी कलाकार हो गयी थी।
मैं सन् 1955 तक लखनऊ में रहा था और हफ़्ते में एक-दो बार डॉ. देवराज के पास ज़रूर जाता था पर उनकी बेटियों से कभी किसी तरह का कोई संवाद नहीं हुआ था। 1955 से 1976 तक लखनऊ से बाहर रहते हुए मैं उन्हें बिल्कुल भूल गया था। 1976 में लखनऊ वापस आने के बाद एक नाटक की प्रस्तुति के दौरान नीरजा ने ख़ुद मुझे अपना परिचय दिया तो मुझे हैरानी और ख़ुशी, दोनों हुईं कि वे डॉ. देवराज की बेटी हैं।
डॉ. देवराज लखनऊ विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र पढ़ाते थे और कविताएँ तो लिखते ही थे, एक उपन्यास भी लिख रहे थे ‘अजय की डायरी’। मैंने उनकी कविताएँ भी पढ़ीं और छपने पर उपन्यास भी। जहाँ उनके समीक्षात्मक लेख मुझे बहुत प्रभावित करते थे, वहीं उनकी कविताएँ पसन्द नहीं आयीं और उपन्यास भी अच्छा नहीं लगा। तब तक निराला, पन्त और प्रसाद के अलावा मैं ‘तारसप्तक’ भी पढ़ चुका था और गिरिजाकुमार माथुर और अज्ञेय की कविताएँ भी। ‘प्रतीक पत्रिका’ मैंने अमीरुद्दौला पब्लिक लायब्रेरी में नियमित रूप से देखनी शुरू कर दी थी। उन दिनों यह पुस्तकालय मेरे लिए एक अद्भुत दुनिया थी। इसके खम्भों और दीवारों पर उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के शुरू के कुछ दुर्लभ रेखाचित्र लगे हुए थे जिनमें पुराने लखनऊ को पहचाना जा सकता था। यहाँ स्त्री-पुरुष यौन सम्बन्धों की कुछ किताबें कभी-कभी किसी कोने में बैठ कर पढ़ता था। पुस्तकालय में साहित्य, इतिहास आदि के अलावा कुछ दुर्लभ पुस्तकें भी देखी थीं। जल्दी ही वहाँ ‘नयी कविता’ नाम की पत्रिका का अंक भी पहुँच गया था। सुमन, नरेन्द्र शर्मा, बच्चन और देवेन्द्र सत्यार्थी की किताबें भी वहीं देखी थीं।
मुझे लगता था कि डॉ. देवराज की कविताएँ कुछ मशीनी-सी हैं। उनमें जीवित मांसपेशियाँ महसूस नहीं होती थीं। इसी तरह जहाँ प्रेमचन्द के उपन्यास, रेणु का ‘मैला आँचल’ और अज्ञेय का ‘शेखर–एक जीवनी’ पसन्द आये थे, डॉ. देवराज का ‘अजय की डायरी’ उबाऊ शब्दजाल भर था, पर यह बात मैंने न कभी कही, न लिखी। उन दिनों नागर जी अपना पहला बड़ा उपन्यास ‘बूँद और समुद्र’ लिख रहे थे और वह ख़ासा जीवन्त लगता था।
बारहवाँ दर्जा पास कर लेने के बाद विश्वविद्यालय में मैंने ‘दर्शनशास्त्र’ विषय ले लिया और तब डॉ. देवराज मेरे लिए और ज़रूरी हो गये। यहीं एक दिन मेरी भेंट हर्षनारायण से हुई–वही हर्षनारायण, जो बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी और विश्व हिन्दू परिषद के बीच होने वाली औपचारिक वार्ताओं में परिषद की ओर से फ़ारसी और संस्कृत किताबों के उद्धरण दिया करते थे।
बहुत कम लोग हर्षनारायण के बारे में पूरी तरह कुछ जानते होंगे। पहली बार डॉ. देवराज से वे अपने एक लेख पर बात करने आये थे जो अंग्रेज़ी के अख़बार ‘पायनियर’ में छपा था। दोनों के बीच मार्क्सवाद को ले कर बहस हुई। डॉ. देवराज ने ‘पायनियर’ में ही एक लेख लिखा था–‘मार्क्सवाद मर चुका है।’ उनके इस अंग्रेज़ी में लिखे लेख का उत्तर हर्षनारायण ने दिया था–‘मार्क्सवाद–एक जीवन्त विचार’। लेख चूँकि मार्क्सवाद के पक्ष में था और सरकारों पर तेलंगाना क्रान्ति का धुआँ छाया हुआ था इसलिए हर्षनारायण ने वह लेख श्रीहर्ष नाम से लिखा था क्योंकि वे उत्तर प्रदेश सरकार में अधीक्षक थे। बाद में हर्षनारायण ने मार्क्सवादी साहित्य और विचार पर उस समय की विख्यात पत्रिका ‘आलोचना’ में काफ़ी लेख लिखे थे। उन दिनों आलोचना का सम्पादन शिवदान सिंह चौहान कर रहे थे।
हर्षनारायण मुझे अच्छे लगे और उन्होंने एक ही बार कहा कि मैं एस.एन. मुंशी के घर में होने वाली नियमित साप्ताहिक बैठक में शामिल हुआ करूँ। ऊपर जिस रटलेज रोड का ज़िक्र मैंने किया और जो आज वाल्मीकि मार्ग है, वहीं एकदम फ़ुटपाथ पर खुलने वाले एक लम्बे-चौड़े कमरे में यह साप्ताहिक बैठक होती थी। कुछ लोग इसे रायिस्ट क्लब भी कहते थे। यह बड़ा कमरा एस.एन. मुंशी निगम के घर की बैठक थी। कमरे में एक बड़ी तस्वीर मानवेन्द्र नाथ राज की थी और चारों तरफ़ लकड़ी और लोहे के रैकों में दुनिया भर के ज्ञान-विज्ञान से सम्बन्धित किताबें अटी दिखती थीं। यह एस.एन. मुंशी का निजी पुस्तकालय था। वहाँ होने वाली सैद्धान्तिक और बेहद उत्तेजक बहसों के वक़्त अक्सर मुंशी जी यहीं से कुछ किताबें निकालते और उनके पन्ने उद्धृत करते थे।
मुंशी जी को अब बहुत कम लोग याद करते हैं। उन्होंने अपना एक कहानी संग्रह भी छपवाया था। इसका ज़िक्र कहीं किसी ने नहीं किया था। ऐसा ही एक कहानी संग्रह कभी प्रगतिशील आन्दोलन के महत्त्वपूर्ण कवि नरेन्द्र शर्मा ने भी छपवाया था। उनके कहानी संग्रह का भी ज़िक्र होते मैंने कहीं नहीं देखा। वह संग्रह ‘ज्वाला परचूनी’ अभी सब मेरे पास है।
मुंशी के घर में होने वाली इस बैठक में लखनऊ के लगभग सभी गम्भीर विचारक, विद्वान शामिल होते थे–समाज वैज्ञानिक, गणितज्ञ, नृत्तत्त्वशास्त्री, इतिहास लेखक, मनोविज्ञान विशेषज्ञ और भी ऐसे ही तमाम लोग। हर बैठक में एक निबन्ध पढ़ा जाता था और उस पर बहस होती थी। यहीं मैंने हर्षनारायण को एस.एन. रॉय के समर्थकों के विरुद्ध अकेले मोर्चा लेते देखा और बाद में यहीं मैं समाजशास्त्री अध्येता सत्यदेव और इन्द्रदेव से मिला। सत्यदेव के एक लेख ‘जनकल्याणकारी राज व्यवस्था’ पर ख़ासी लम्बी बहस चली थी। हर्षनारायण की तुलना में सत्यदेव की उम्र कम थी इसलिए उनसे मित्रता बहुत गहरी हो गयी थी। दोनों भाई समाजशास्त्र और इतिहास दर्शन के अध्येता थे इसलिए उन्होंने मेरे लिए एक नयी दुनिया का रास्ता खोल दिया। मुशी के घर की बैठकों में मैंने न कोई लेख पढ़ा, न बहस में शामिल हुआ। एस.एन. मुंशी से मित्रता ज़रूर हो गयी।
विचित्र बात है कि उन दिनों के लखनऊ में साहित्यकारों और समाजशास्त्रियों चिन्तकों के बीच अच्छी-ख़ासी खाई दिखी। मुंशी के घर की बैठकों में यशपाल, भगवती चरण वर्मा, अमृतलाल नागर, कुँवरनारायण आदि कभी नहीं आये। दर्शनशास्त्र के अध्येता डॉ. देवराज भी कभी नहीं आये। इसी तरह मुंशी के घर पर होने वाली बैठकों में जो विचारक आते थे, वे यशपाल के घर पर होने वाली ‘लखनऊ लेखक संघ’ की बैठकों में भी नहीं दिखे।
‘लखनऊ लेखक संघ’ की बैठक हर सोमवार यशपाल के विप्लव कार्यालय वाले घर में होती थी। ‘लखनऊ लेखक संघ’, ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ का ही एक छद्म रूप था। 1947 में अंग्रेज़ों से सत्ता हस्तान्तरण के दौर में ही आन्ध्र प्रदेश के किसानों ने निज़ाम और ज़मीदारों-महाजनों के ख़िलाफ़ संघर्ष छेड़ दिया था। 1947 के बाद उनके विरुद्ध भारत सरकार भी खड़ी हो गयी थी। तेलंगाना के इस संघर्ष में सिर्फ़ साम्यवादी ही शामिल थे। मुझे याद है, मेरे पिता और दूसरे आर्यसमाजी आन्ध्र प्रदेश के किसानों को भूल कर ‘सत्यार्थ प्रकाश’ नाम की किताब को लेकर कर सत्याग्रही जत्थे संगठित कर रहे थे। बाद में जब कम्युनिस्ट पार्टी पर प्रतिबन्ध लगा तो प्रगतिशील लेखक संघ भी परेशानी में पड़ गया था। यशपाल ने इसीलिए ‘लखनऊ लेखक संघ’ गठित कर लिया था। इससे ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ की गतिविधियाँ चलाने में मदद मिलती थी।
इस संघ की बैठक में मेरे साथ एक रोचक घटना हुई थी। पहली बार जब मैं वहाँ गया तो संकोच के कारण काफ़ी दुबक कर बैठा। बैठक में आये लोगों के लिए चाय भी आती थी। वह उस दिन भी आयी। सबको दी गयी पर मुझे नहीं मिली। या तो देने वाले ने मुझे देखा नहीं या भूल गया। चाय तब तक हमारे घर में बड़ी महत्त्वपूर्ण चीज़ हुआ करती थी। उसका बनना और पिया जाना एक अनुष्ठान से कम नहीं होता था। कभी अगर फूली हुई डबल रोटी के टुकड़े भी होते थे तो अनुष्ठान और ज़्यादा बड़ा हो जाता था। यशपाल के घर की उस सभा में चाय न मिलना एक भारी आघात था। तब मैं पायजामे पर कमीज़ पहनता था और भरसक साफ़ रखने की कोशिश करता था, पर हो सकता था वहाँ चाय देने वाले व्यक्ति ने मुझे पड़ोस से भटक कर आ बैठा कोई लड़का समझा हो।
वहाँ से लौट कर मैंने उस प्रसंग पर एक लम्बी कविता लिखी थी। इसमें वहाँ आये लोगों और फ़र्श पर बिछी सफ़ेद चाँदनी पर ख़ासा क्षोभ व्यक्त किया गया था। यह रोचक बात है कि मैं वह कविता बाद में बिल्कुल ही भूल गया। उस घटना के लगभग तीन दशक बाद जब मुझे यह कविता पुराने काग़ज़ों में दबी मिली तो मैं हैरान रह गया क्योंकि मेरे और यशपाल के बीच उस कविता की कोई लकीर कहीं नहीं थी।
उन दिनों पश्चिमी दुनिया की कविता में बिम्बवादियों, प्रयोगधर्मियों और कुछ बर्तानवी नाराज़ कवियों की चर्चा थी। हिन्दी में ‘प्रतीक’ पत्रिका और पिछले दशक में प्रकाशित ‘तारसप्तक’ के बावजूद हिन्दी कविता एक अलग राह पकड़ चुकी थी। ‘नयी कविता’ संकलन के साथ-साथ कोमल गीतों के रास्ते इधर आये केदारनाथ सिंह, धर्मवीर भारती, आदि कविता को अज्ञेय के प्रभाव से अलग आकार दे रहे थे। कथ्य को ले कर इस कविता का दायरा समाज से हट कर पूरी तरह व्यक्ति में केन्द्रित हो गया था। कविता इलियट और स्टीफेन स्पेण्डर जैसे कवियों के ज़्यादा करीब हो रही थी और यही एक ऐसा बिन्दु था जिसके विश्वव्यापी वैचारिक आन्दोलन की ऐसी धारा से सम्बन्ध बन रहे थे जिनका अध्ययन आज भी नहीं हुआ है।
उन दिनों में डी.ए.वी. कॉलेज में ग्यारहवें दर्ज़े में पढ़ रहा था। आर्य समाजियों के इस कॉलेज के पुस्तकालय में हिन्दी साहित्य की नयी किताबें बहुत बड़ी तादाद में थीं, निराला जी की किताबें छोड़ कर। निराला जी की किताबें श्रीराम रोड के तिराहे पर स्थित गंगा पुस्तक माला से खरीदी थीं, काफ़ी सस्ते दामों पर। निराला की किताबें कॉलेज के पुस्तकालय में शायद इसीलिए नहीं थीं कि वे बहुत कुख्यात या बदनाम थे और आर्य समाजी कॉलेज के शास्त्री बहुल अध्यापक समाज को शायद पसन्द नहीं आते होंगे। कॉलेज के पुस्तकालय में ही मैंने एक किताब देखी–‘छायावाद का पतन।’ पन्त, महादेवी, प्रसाद, निराला आदि को ले कर लिखी गयी इस किताब ने ख़ासी ही उत्सुकता पैदा की। उसी वर्ष मैं महादेवी, निराला और पन्त को इलाहाबाद में देख कर लौटा था और उस उम्र में उनसे यह भेंट तीर्थयात्रा से कम नहीं लग रही थी। ‘छायावाद का पतन’ जैसी किताब के लेखक से मिलने की उत्सुकता पैदा हुई। लेखक थे–डॉ. देवराज। मेरे घनिष्ठ मित्र, सहपाठी राजेन्द्र कुमार श्रीवास्तव ने जल्दी उनके घर का पता लगा लिया। हम दोनों इकट्ठे ही उनसे मिले। छोटी-सी चहारदीवारी से घिरे एक छोटे, लेखिन ख़ासे उजाड़ से बाग़ीचे को पार करके उनका वह कमरा था जिसमें बैठ कर वे लिखते-पढ़ते रहते थे। पीछे के कमरे के दरवाजे पर कभी-कभी उनकी दो बेटियों में से कोई एक चुपचाप आ कर खड़ी हो जाती थी फिर ग़ायब हो जाती थी। बड़ी बेटी नीरजा बाद में लखनऊ रंगमंच की बहुत अच्छी कलाकार हो गयी थी।
मैं सन् 1955 तक लखनऊ में रहा था और हफ़्ते में एक-दो बार डॉ. देवराज के पास ज़रूर जाता था पर उनकी बेटियों से कभी किसी तरह का कोई संवाद नहीं हुआ था। 1955 से 1976 तक लखनऊ से बाहर रहते हुए मैं उन्हें बिल्कुल भूल गया था। 1976 में लखनऊ वापस आने के बाद एक नाटक की प्रस्तुति के दौरान नीरजा ने ख़ुद मुझे अपना परिचय दिया तो मुझे हैरानी और ख़ुशी, दोनों हुईं कि वे डॉ. देवराज की बेटी हैं।
डॉ. देवराज लखनऊ विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र पढ़ाते थे और कविताएँ तो लिखते ही थे, एक उपन्यास भी लिख रहे थे ‘अजय की डायरी’। मैंने उनकी कविताएँ भी पढ़ीं और छपने पर उपन्यास भी। जहाँ उनके समीक्षात्मक लेख मुझे बहुत प्रभावित करते थे, वहीं उनकी कविताएँ पसन्द नहीं आयीं और उपन्यास भी अच्छा नहीं लगा। तब तक निराला, पन्त और प्रसाद के अलावा मैं ‘तारसप्तक’ भी पढ़ चुका था और गिरिजाकुमार माथुर और अज्ञेय की कविताएँ भी। ‘प्रतीक पत्रिका’ मैंने अमीरुद्दौला पब्लिक लायब्रेरी में नियमित रूप से देखनी शुरू कर दी थी। उन दिनों यह पुस्तकालय मेरे लिए एक अद्भुत दुनिया थी। इसके खम्भों और दीवारों पर उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के शुरू के कुछ दुर्लभ रेखाचित्र लगे हुए थे जिनमें पुराने लखनऊ को पहचाना जा सकता था। यहाँ स्त्री-पुरुष यौन सम्बन्धों की कुछ किताबें कभी-कभी किसी कोने में बैठ कर पढ़ता था। पुस्तकालय में साहित्य, इतिहास आदि के अलावा कुछ दुर्लभ पुस्तकें भी देखी थीं। जल्दी ही वहाँ ‘नयी कविता’ नाम की पत्रिका का अंक भी पहुँच गया था। सुमन, नरेन्द्र शर्मा, बच्चन और देवेन्द्र सत्यार्थी की किताबें भी वहीं देखी थीं।
मुझे लगता था कि डॉ. देवराज की कविताएँ कुछ मशीनी-सी हैं। उनमें जीवित मांसपेशियाँ महसूस नहीं होती थीं। इसी तरह जहाँ प्रेमचन्द के उपन्यास, रेणु का ‘मैला आँचल’ और अज्ञेय का ‘शेखर–एक जीवनी’ पसन्द आये थे, डॉ. देवराज का ‘अजय की डायरी’ उबाऊ शब्दजाल भर था, पर यह बात मैंने न कभी कही, न लिखी। उन दिनों नागर जी अपना पहला बड़ा उपन्यास ‘बूँद और समुद्र’ लिख रहे थे और वह ख़ासा जीवन्त लगता था।
बारहवाँ दर्जा पास कर लेने के बाद विश्वविद्यालय में मैंने ‘दर्शनशास्त्र’ विषय ले लिया और तब डॉ. देवराज मेरे लिए और ज़रूरी हो गये। यहीं एक दिन मेरी भेंट हर्षनारायण से हुई–वही हर्षनारायण, जो बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी और विश्व हिन्दू परिषद के बीच होने वाली औपचारिक वार्ताओं में परिषद की ओर से फ़ारसी और संस्कृत किताबों के उद्धरण दिया करते थे।
बहुत कम लोग हर्षनारायण के बारे में पूरी तरह कुछ जानते होंगे। पहली बार डॉ. देवराज से वे अपने एक लेख पर बात करने आये थे जो अंग्रेज़ी के अख़बार ‘पायनियर’ में छपा था। दोनों के बीच मार्क्सवाद को ले कर बहस हुई। डॉ. देवराज ने ‘पायनियर’ में ही एक लेख लिखा था–‘मार्क्सवाद मर चुका है।’ उनके इस अंग्रेज़ी में लिखे लेख का उत्तर हर्षनारायण ने दिया था–‘मार्क्सवाद–एक जीवन्त विचार’। लेख चूँकि मार्क्सवाद के पक्ष में था और सरकारों पर तेलंगाना क्रान्ति का धुआँ छाया हुआ था इसलिए हर्षनारायण ने वह लेख श्रीहर्ष नाम से लिखा था क्योंकि वे उत्तर प्रदेश सरकार में अधीक्षक थे। बाद में हर्षनारायण ने मार्क्सवादी साहित्य और विचार पर उस समय की विख्यात पत्रिका ‘आलोचना’ में काफ़ी लेख लिखे थे। उन दिनों आलोचना का सम्पादन शिवदान सिंह चौहान कर रहे थे।
हर्षनारायण मुझे अच्छे लगे और उन्होंने एक ही बार कहा कि मैं एस.एन. मुंशी के घर में होने वाली नियमित साप्ताहिक बैठक में शामिल हुआ करूँ। ऊपर जिस रटलेज रोड का ज़िक्र मैंने किया और जो आज वाल्मीकि मार्ग है, वहीं एकदम फ़ुटपाथ पर खुलने वाले एक लम्बे-चौड़े कमरे में यह साप्ताहिक बैठक होती थी। कुछ लोग इसे रायिस्ट क्लब भी कहते थे। यह बड़ा कमरा एस.एन. मुंशी निगम के घर की बैठक थी। कमरे में एक बड़ी तस्वीर मानवेन्द्र नाथ राज की थी और चारों तरफ़ लकड़ी और लोहे के रैकों में दुनिया भर के ज्ञान-विज्ञान से सम्बन्धित किताबें अटी दिखती थीं। यह एस.एन. मुंशी का निजी पुस्तकालय था। वहाँ होने वाली सैद्धान्तिक और बेहद उत्तेजक बहसों के वक़्त अक्सर मुंशी जी यहीं से कुछ किताबें निकालते और उनके पन्ने उद्धृत करते थे।
मुंशी जी को अब बहुत कम लोग याद करते हैं। उन्होंने अपना एक कहानी संग्रह भी छपवाया था। इसका ज़िक्र कहीं किसी ने नहीं किया था। ऐसा ही एक कहानी संग्रह कभी प्रगतिशील आन्दोलन के महत्त्वपूर्ण कवि नरेन्द्र शर्मा ने भी छपवाया था। उनके कहानी संग्रह का भी ज़िक्र होते मैंने कहीं नहीं देखा। वह संग्रह ‘ज्वाला परचूनी’ अभी सब मेरे पास है।
मुंशी के घर में होने वाली इस बैठक में लखनऊ के लगभग सभी गम्भीर विचारक, विद्वान शामिल होते थे–समाज वैज्ञानिक, गणितज्ञ, नृत्तत्त्वशास्त्री, इतिहास लेखक, मनोविज्ञान विशेषज्ञ और भी ऐसे ही तमाम लोग। हर बैठक में एक निबन्ध पढ़ा जाता था और उस पर बहस होती थी। यहीं मैंने हर्षनारायण को एस.एन. रॉय के समर्थकों के विरुद्ध अकेले मोर्चा लेते देखा और बाद में यहीं मैं समाजशास्त्री अध्येता सत्यदेव और इन्द्रदेव से मिला। सत्यदेव के एक लेख ‘जनकल्याणकारी राज व्यवस्था’ पर ख़ासी लम्बी बहस चली थी। हर्षनारायण की तुलना में सत्यदेव की उम्र कम थी इसलिए उनसे मित्रता बहुत गहरी हो गयी थी। दोनों भाई समाजशास्त्र और इतिहास दर्शन के अध्येता थे इसलिए उन्होंने मेरे लिए एक नयी दुनिया का रास्ता खोल दिया। मुशी के घर की बैठकों में मैंने न कोई लेख पढ़ा, न बहस में शामिल हुआ। एस.एन. मुंशी से मित्रता ज़रूर हो गयी।
विचित्र बात है कि उन दिनों के लखनऊ में साहित्यकारों और समाजशास्त्रियों चिन्तकों के बीच अच्छी-ख़ासी खाई दिखी। मुंशी के घर की बैठकों में यशपाल, भगवती चरण वर्मा, अमृतलाल नागर, कुँवरनारायण आदि कभी नहीं आये। दर्शनशास्त्र के अध्येता डॉ. देवराज भी कभी नहीं आये। इसी तरह मुंशी के घर पर होने वाली बैठकों में जो विचारक आते थे, वे यशपाल के घर पर होने वाली ‘लखनऊ लेखक संघ’ की बैठकों में भी नहीं दिखे।
‘लखनऊ लेखक संघ’ की बैठक हर सोमवार यशपाल के विप्लव कार्यालय वाले घर में होती थी। ‘लखनऊ लेखक संघ’, ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ का ही एक छद्म रूप था। 1947 में अंग्रेज़ों से सत्ता हस्तान्तरण के दौर में ही आन्ध्र प्रदेश के किसानों ने निज़ाम और ज़मीदारों-महाजनों के ख़िलाफ़ संघर्ष छेड़ दिया था। 1947 के बाद उनके विरुद्ध भारत सरकार भी खड़ी हो गयी थी। तेलंगाना के इस संघर्ष में सिर्फ़ साम्यवादी ही शामिल थे। मुझे याद है, मेरे पिता और दूसरे आर्यसमाजी आन्ध्र प्रदेश के किसानों को भूल कर ‘सत्यार्थ प्रकाश’ नाम की किताब को लेकर कर सत्याग्रही जत्थे संगठित कर रहे थे। बाद में जब कम्युनिस्ट पार्टी पर प्रतिबन्ध लगा तो प्रगतिशील लेखक संघ भी परेशानी में पड़ गया था। यशपाल ने इसीलिए ‘लखनऊ लेखक संघ’ गठित कर लिया था। इससे ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ की गतिविधियाँ चलाने में मदद मिलती थी।
इस संघ की बैठक में मेरे साथ एक रोचक घटना हुई थी। पहली बार जब मैं वहाँ गया तो संकोच के कारण काफ़ी दुबक कर बैठा। बैठक में आये लोगों के लिए चाय भी आती थी। वह उस दिन भी आयी। सबको दी गयी पर मुझे नहीं मिली। या तो देने वाले ने मुझे देखा नहीं या भूल गया। चाय तब तक हमारे घर में बड़ी महत्त्वपूर्ण चीज़ हुआ करती थी। उसका बनना और पिया जाना एक अनुष्ठान से कम नहीं होता था। कभी अगर फूली हुई डबल रोटी के टुकड़े भी होते थे तो अनुष्ठान और ज़्यादा बड़ा हो जाता था। यशपाल के घर की उस सभा में चाय न मिलना एक भारी आघात था। तब मैं पायजामे पर कमीज़ पहनता था और भरसक साफ़ रखने की कोशिश करता था, पर हो सकता था वहाँ चाय देने वाले व्यक्ति ने मुझे पड़ोस से भटक कर आ बैठा कोई लड़का समझा हो।
वहाँ से लौट कर मैंने उस प्रसंग पर एक लम्बी कविता लिखी थी। इसमें वहाँ आये लोगों और फ़र्श पर बिछी सफ़ेद चाँदनी पर ख़ासा क्षोभ व्यक्त किया गया था। यह रोचक बात है कि मैं वह कविता बाद में बिल्कुल ही भूल गया। उस घटना के लगभग तीन दशक बाद जब मुझे यह कविता पुराने काग़ज़ों में दबी मिली तो मैं हैरान रह गया क्योंकि मेरे और यशपाल के बीच उस कविता की कोई लकीर कहीं नहीं थी।
उन दिनों पश्चिमी दुनिया की कविता में बिम्बवादियों, प्रयोगधर्मियों और कुछ बर्तानवी नाराज़ कवियों की चर्चा थी। हिन्दी में ‘प्रतीक’ पत्रिका और पिछले दशक में प्रकाशित ‘तारसप्तक’ के बावजूद हिन्दी कविता एक अलग राह पकड़ चुकी थी। ‘नयी कविता’ संकलन के साथ-साथ कोमल गीतों के रास्ते इधर आये केदारनाथ सिंह, धर्मवीर भारती, आदि कविता को अज्ञेय के प्रभाव से अलग आकार दे रहे थे। कथ्य को ले कर इस कविता का दायरा समाज से हट कर पूरी तरह व्यक्ति में केन्द्रित हो गया था। कविता इलियट और स्टीफेन स्पेण्डर जैसे कवियों के ज़्यादा करीब हो रही थी और यही एक ऐसा बिन्दु था जिसके विश्वव्यापी वैचारिक आन्दोलन की ऐसी धारा से सम्बन्ध बन रहे थे जिनका अध्ययन आज भी नहीं हुआ है।
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