कहानी संग्रह >> मुद्राराक्षस संकलित कहानियां मुद्राराक्षस संकलित कहानियांमुद्राराक्षस
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कथाकार द्वारा चुनी गई सोलह कहानियों का संकलन...
इस बात को लोगों ने खामोशी से सुना। तभी कुछ लोग दौड़ते हुए उस दरवाजे तक आए,
जिससे हमें अंदर लूंसा गया था और बाद में कीलों से मजबूत तख्ते जड़ दिए गए
थे। लोहे की कोई वजनी चीज धकेलकर वहां अड़ा दी गई और बेलघों से तख्ने उखाड़े
जाने लगे। किसी ने चीखकर कहा, "बाहर निकालते वक्त ये वदमाश कोई गलत हरकत न
करने पाएँ, ध्यान रखना।"
थोड़ी दूर से कोई और आवाज आई, "दो-दो करके लाए जाएंगे।"
कई रोज से गली-मुहल्लों के सन्नाटे को रौंदती पैशाचिक हंसी की तरह ही इस हलचल
ने भी हमारी नसों में एक सनसनी भर दी। तख्ते जल्दी ही उखड़ गए, पर सारे नहीं।
नीचे से कुछ तख्ने उखाड़ने के बाद वह वजनी लोहे की चीज धकेलकर वहां अड़ा दी
गई। दरअसल वह लोहे की जंगलेदार ऐसी मजबूत दीवार थी, जिसे पुलिस सड़कों पर
अवरोध के लिए रख देती थी। बाहर से किसी ने चीखकर कहा, "एक-एक करके बाहर आओ।
दो लोग।"
अंदर लोग सन्नाटे में आए खड़े रहे। तख्ने उखड़ने से बनी जगह पर अड़ी रोक के
बीच से बाहर की हलकी-सी झलक मिलती थी। बाहर कई लोग मशालें लिए खड़े थे। ट्रक
कहीं नहीं दिख रहा था। जरूर थोड़ा हटकर खड़ा किया गया होगा।
"हम कह रहे हैं, एक-एक करके बाहर आओ।" किसी ने फिर कहा।
थोड़ी हिचक के साथ महाशय जी ने ऊंची आवाज में कहा, "लेकिन क्यों?"
"हम लोग तुम्हें मुक्त करने जा रहे हैं।"
यह बात किसी को भी विश्वसनीय नहीं लगी।
"तो इस तरह बाहर निकालने का क्या मतलब है?" प्रो. मुनीसिंह ने हम लोगों से
कहा। उनकी आवाज शायद बाहर वालों ने भी सुनी। बाहर आने के लिए ललकारने वाला
बोला, “हमलोग कुछ लिखा-पढ़ी करेंगे, फिर चले जाना जहां मर्जी आए।"
"लेकिन इस वक्त?"
"हां, इसी वक्त।" बाहर से किसी ने हंसी दबाकर कहा, "चलो, अब चुपचाप बाहर आ
जाओ।"
अंधेरे में अंदर खामोश खड़े लोगों में से कोई बोला, "चलो न, खड़े क्यों हो?"
वह आदमी लोगों को हटाकर दरवाजे के खुले हिस्से की तरफ जाने लगा। तभी पीछे से
महाशय जी चीखे, “खबरदार, कोई बाहर नहीं जाएगा। कोई नहीं निकलेगा।"
"जब वो लोग कह रहे हैं। और फिर आखिर यहां कब तक रहेंगे?" दरवाजे के पास से एक
और आवाज आई।
"नहीं, बिल्कुल नहीं। खबरदार!" शायद महाशय जी ही थे, जो लोगों को धकेलते हुए
दरवाजे तक गए और पलटकर खड़े हो गए, “मैं जानता हूं, तुम लोग नहीं जानते, धोखा
दिया जा रहा है तुम लोगों को। मैं कहता हूं, कोई बाहर नहीं जाएगा।"
बाहर कहीं दूर से किसी ने ललकारा, “पंडित, जरा देखना तो कौन है?"
जिसे पंडित संबोधित किया गया था, शायद वही बोला, "अभी देखता हूँ इस चूहे को।
जरा रोशनी अंदर दिखाना।"
दो-तीन लोग मशालें दरवाजे के खुले हिस्से के पास ले आए। इसी वक्त झुककर एक
बहुत लहीम-शहीम आदमी अंदर प्रकट हुआ। उसके अंदर घसने पर दरवाजे की तरफ मुड़कर
पीठ किए महाशय जी धक्का खाकर सामने खड़े लोगों से टकराए। पीछे मुड़कर धकेलने
वाले को देखकर वे बोले. “ये क्या है?"
“अच्छा, तो तुम हो! तुम्हारी तो..."
लोगों के देखते-देखते उस विशालकाय व्यक्ति ने महाशय जी को उठाया और किसी खुल
गए बिस्तरबंद की तरह उन्हें दरवाजे के खुले हिस्से से बाहर उछाल दिया।
बाहर कुछ आवाजें आईं, "मारो साले को!"
वह विशालकाय व्यक्ति अपने नंगे बदन पर जनेऊ संभालता हुआ भीड़ की तरफ घूरकर
बोला, “तुम लोगों को भी देखता हूँ।"
तभी इस भीड़ में हलचल हुई। जिस व्यक्ति ने कच्ची जमीन में गढ़े बनाकर शौच का
उपाय खोजा था, वह जैसे लोगों के ऊपर तैरता हुआ आया और 'मारो' की आवाज के साथ
उसने जमीन खोदने में इस्तेमाल की गई चीज सीधे उस विशालकाय आदमी के पेट में
धंसा दी। वह झाड़ियों को कतरने वाली एक भारी भरकम कैंची थी। कैंची उस
पहलवाननुमा आदमी ने दोनों हाथों से पकड़ी और लगा उसे खींचकर बाहर निकालने। पर
ऐसा कुछ नहीं हुआ। बेहद आतंकित निगाहें झुकाकर उसने अपने पेट में धंसी विराट
कैंची की दोनों मूठे देखीं और घटने के बल बैठ गया। उसका मंह थोड़ा-सा फैल
गया, पर आवाज कोई नहीं निकली। उसके बहुत आहिस्ता से एक तरफ लुढ़क जाने के बाद
सबसे पहले बाहर खड़े मशाल वाले चीखे।
किसी ने कहा नहीं, पर राख से काले हुए हर व्यक्ति ने समझ लिया कि निर्णायक
लड़ाई शुरू हो चुकी थी।
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