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मुद्राराक्षस संकलित कहानियां

मुद्राराक्षस

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :203
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7243
आईएसबीएन :978-81-237-5335

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कथाकार द्वारा चुनी गई सोलह कहानियों का संकलन...


"मगर वह लड़का कहां है?"

"लड़का?"

वे लोग ठिठक गए। युवक सचमुच वहां नहीं था। उन लोगों से थोड़ा फासला रखकर वह बाईं तरफ चल रहा था। अभी तक साथ था पर अब? सब खामोशी से उस अंधेरे में युवक की आकृति खोजने लगे, मगर वह सचमुच वहां नहीं था।

"एई, ए लड़के!" कनु दा ने ऊंची आवाज में कहा।

एक क्षण को लगा, उन्हीं की आवाज में वही बोलकर किसी ने उन्हें चिढ़ाया, पर वह भ्रम था। आवाज के बाद का सन्नाटा ही उन्हें बजता लगा था।

"वह तो सचमुच नहीं है। हम करेंगे क्या?" दयाल ने अंधेरे की कुहनी धकेलने की कोशिश करते हुए कहा।

"होगा। शायद पेशाब करने लगा हो।" जेतली बोले। मगर यकीन किसी को नहीं हुआ। सब एकबारगी ही समझ गए कि युवक वहां नहीं है और लौटेगा भी नहीं।

सामने जो रास्ता अभी कुछ गज तक दीख रहा था वह भी पिघलकर अंधेरे में मिल गया। जहां वे खड़े थे वहां पैरों के नीचे की जमीन एक ऐसा द्वीप हो गई जिसको मृत्यु की तरह सांस खींचे अंधेरे ने घेर रखा था। वे लोग लगभग टटोलकर आगे बढे। अंधेरे में इस बार दाई ओर कोई दबी-सी खड़क हुई और फिर कुछ चमका।

"वो उधर..."

“पता नहीं।" जीवन राय की आवाज फंसती-सी जान पड़ी, “लेकिन वह गया कहां? ऐ, अरे ओ..."

"लेकिन-लेकिन वो ऐसा नहीं कर सकता।" महादेव भाई ने सहमते हुए हाथों के अनुमान से शंकरलाल को छूने की कोशिश की। शंकरलाल बेतरह चौंक गए स्पर्श से, "महादेव भाई, आप हैं? मगर हम यहां से निकलेंगे कैसे?"

अंधेरे की उस झील में डूबते-बहते हुए दिशाभ्रष्ट होने में उन्हें ज्यादा समय नहीं लगा। उन्होंने महसूस किया, अब जहां वे हैं, वहां बेपनाह कांटेदार झाड़ियां हैं और झाड़ियां उन्हें वहां पाकर जैसे भूखी हो आई हैं। वे अंधे मांसखोर की तरह उनके शरीरों से लिपटने लगीं।

"कनु दा!" आगे कहीं से शंकरलाल चीखे, "ओए कांटे..."

“आवाज, आवाज दो। ड्राइवर को आवाज दो। शायद वो सुन ले...ड्राइवर!"

“ओफ, ये कांटे!" जीवन राय हांफते हुए चीखे, "ड्राइवर!"

उन्हें लगा कि अंधेरा इतना गाढ़ा है कि आवाज कुछ कदम जाकर ही गिर पड़ती है। और जोर से चीखना पड़ेगा- ड्राइवर...

"लेकिन...लेकिन उस पाजी लड़के ने हमारे साथ यह किया क्यों?" शंकरलाल झाड़ियों से लड़कर जख्मी हो रहे थे।

"किया क्यों?" कनु दा ने घुटी आवाज में कहा, "बदला! शायद वह बदला लेना चाहता था। शुरू से ही।"

"बदला, मगर हमसे क्यों? हमने क्या बिगाड़ा था उसका?" जीवन राय छटपटाकर बोले।

“हां, हमने क्या बिगाड़ा था? मगर फिर किसने बिगाड़ा था?" कनु दा ने संघर्ष छोड़ दिया था और वहीं बैठ जाने को थे।

ठीक इसी वक्त भयाक्रांत दयाल जोर-जोर से चीखने लगा, "ड्राइवर! ड्राइवर! सुन रहे हो? कोई सुन रहा है? ड्राइवर!"

दयाल के फेफड़े खुश्क हो गए और गला भर्रा गया। वह खांसने लगा।

अगर वहां पशु था तो वह भी धीरज से इंतजार करने लगा इन लोगों की चीखों के चुकने का। चीखें सचमुच थक रही थीं, बड़ी तेजी से।

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