लोगों की राय

कहानी संग्रह >> मुद्राराक्षस संकलित कहानियां

मुद्राराक्षस संकलित कहानियां

मुद्राराक्षस

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :203
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7243
आईएसबीएन :978-81-237-5335

Like this Hindi book 7 पाठकों को प्रिय

2 पाठक हैं

कथाकार द्वारा चुनी गई सोलह कहानियों का संकलन...

प्रतिहिंसा


“अब सब आएंगे। सारे के सारे आएंगे। जैसे ढोर मरें तो गिद्ध आते हैं। सब साले आएंगे।" बूढ़ा जोर से चिल्लाया।

पत्रकारों की टुकड़ी ने चौंककर देखा।

लोगों के आने-जाने से कटकर नाले की तरह गहरे हो गए उस कच्चे रास्ते के किनारे ऊंचाई पर उगा पतवार जला दिया गया था और उसके भद्दे काले अवशेष जहां खड़े थे, वहीं किसी अधजली लाश-सा बूढ़ा खड़ा था, हाथ-भर चौड़ा कपड़ा कमर में लपेटे। वह कपड़ा खुद इतना मैला था कि काले शरीर पर चमड़ी की अतिरिक्त परत भर लग रहा था। उलझे बालों और बेतरतीब दाढ़ीवाला वह बूढ़ा किसी ऐसे आदिम मसीहे की तरह लग रहा था जो सारी दुनिया को एक वीभत्स शाप दे रहा हो।

"बहुत खूब!" फोटोग्राफर दयाल ने जल्दी-जल्दी उसकी तस्वीरें खींचनी शुरू कर दीं। “ठीक बाइबिल के किसी चरित्र की तरह। नहीं?"

“यह आदमी कह क्या रहा है?" अंग्रेजी पत्रकार शंकरलाल ने उत्सुक होकर पूछा।

बूढ़ा ठेठ आदिवासी बोली में चीख रहा था। आनेवालों को उसकी बोली का अभ्यास नहीं था। दयाल ने अनुमान से कहा, “वह शायद हम लोगों को आपबीती सुनाना चाहता है।"

"वैसे जो कुछ भी हुआ, बहुत बुरा हुआ, दुर्भाग्यपूर्ण।" महादेव भाई ने अफसोस से कहा। उन पांचों में से रुका कोई नहीं। थोड़ा-सा आगे जाकर, जहां वह सड़क घूम गई थी, बहुत गहरा उतार था और नीचे गोल छोटे-बड़े पत्थरों की एक बहुत लंबी पट्टी सड़क को कुचलकर दो हिस्सों में चली गई थी। वहां सड़क इस तरह कटी हुई थी जैसे किसी ने गोबर को छड़ी मार दी हो और वह दो हिस्सों में बंट गया हो। सबसे आगे चलते जेतली साहब मिट्टी और रेत में कुछ देखने लगे।

पत्रकार उनकी आदत जानते थे। ऐसी जगह पहुंचकर जेतली अक्सर कुछ विचित्रतायुक्त पत्थर के टुकड़े खोजते रहते थे। पत्थर मिल जाने पर वे उसके वैज्ञानिक महत्त्व का जिक्र भी करते थे।

“पत्थर बाद में भाई, पत्थर बाद में।" कनु दा आगे बढ़ते हुए जेतली को ललकारने लगे।

जेतली झुके तो सचमुच पत्थरों के लिए थे, मगर खुश्क बालू पर कुछ निशान देखकर सन्नाटे में आ गए थे। बालू पर किसी शेर या चीते के जैसे पैरों के निशान थे। जेतली ने हाथ में जो पत्थर उठाया था, उसे बिना देखे नीचे गिरा दिया, मगर सीधे नहीं हुए।

"क्या मिला?" शंकरलाल ने आधे उपहास के साथ उनसे पूछा।

"ये निशान।" जेतली ने थोड़ी खुश्क आवाज में कहा, "आप देख रहे हैं। किसी चीते के लगते हैं।"

'चीता' शब्द पर बाकी लोग भी वहीं झुक गए। लगभग सभी ने विश्वास प्रकट किया कि वे निशान चीते के ही हैं।

सबसे पीछे आ रहे जीवरन राय अपनी अन्यमनस्कता के बावजूद यह संवाद सुन रहे थे। वे थोड़े विश्वास से बोले, "ऐसी जगहों पर शेर-चीते हों तो यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है।"

शंकरलाल हंसे, “पत्रकारों को शेर नहीं खाएगा।"

"हमें देर तो नहीं हो जाएगी?" दयाल ने अपने कैमरे में झांकते हुए शंका प्रकट की।

"हां, शायद।" जीवन राय ने कहा और रास्ता दिखानेवाले आदिवासी युवक से पूछा, "और कितना चलना पड़ेगा?"

युवक बोला कुछ नहीं। बर्फ फोड़ने वाले सुए जैसी मोटी नुकीली आंखों से उनकी तरफ देखकर बहुत रहस्यमय ढंग से मुस्कुराया और मुड़कर आगे की तरफ चल पड़ा।

उसकी उन निगाहों से जीवन राय थोड़ा आशंकित हो उठे। अपनी आशंका पर काबू पाते हुए शंकरलाल ने अंग्रेजी में जैसे अपने-आपसे बदबदाकर कहा. "विचित्र!"

यह यात्रा यहां से एकाएक उन्हें थोड़ी डरावनी-सी लगने लगी। उन्हें लगा, वे जीप न छोड़ते तो ज्यादा अच्छा होता।

इस माहौल में जहां उनके लिए सब कुछ बेपनाह अजनबी था, मुख्य सड़क पर छोड़ी गई जीप अपने घर का जैसा आश्वासन महसूस कराने लगी थी, मगर अब उपाय कोई नहीं था।

टेपा आने के लिए कोई चालीस किलोमीटर का फासला उन्होंने जीप पर तय किया था लेकिन टेपा पहुंचने के लिए मुख्य सड़क से जो रास्ता था, वह इतना असमतल और मुश्किल था कि जीप वहां चल ही नहीं सकती थी।

सड़क से कतराया वह बेढंगा रास्ता बेहद कंटीले जंगलों और बारिश से कटकर बनी खाइयों में होकर निकलता था।

जीप उन्हें वहीं छोड़ देनी पड़ी थी। शहर से उन्होंने आग्रह के बावजूद सिपाही साथ नहीं लिए थे। वे जानते थे कि सिपाही साथ देखकर टेपा के लोग या तो भाग खड़े होंगे या गूंगे बन जाएंगे। उन्होंने टेपा के ही एक आदिवासी को सिर्फ इसलिए साथ ले लिया था कि वह उन्हें रास्ता बता सकेगा।

पहली बार ही मिलने पर जिस विनय के साथ उसने इन लोगों को देखा था, उसमें एक डरावना ठंडापन था, लगभग वैसा जैसा किसी सांप की आंखों में होता है। उसकी आंखों की चुभन किसी हद तक खलनेवाली थी, बल्कि उन्हें लगा, जैसे वह युवक पलकें भी बिल्कुल नहीं झपकाता। उसकी विनय भी उस लकड़ी की तरह लगी जिसे तोड़ा आसानी से जा सकता था लेकिन झुकाया नहीं जा सकता था। बल्कि तोड़ते वक्त फांसों से उंगलियों के छलनी हो जाने का डर था।

आगे जंगल और ज्यादा अप्रिय लगनेवाला था। दरख्त बहुत ऊंचे नहीं थे, मगर वे एक विचित्र तांत्रिक संसार थे। दिन की गर्द और ठहरी हुई हवा में वहां किसी ने मंत्र से फूंके थे और जगह-जगह काला धुआं उठता हुआ ऐंठकर रुक गया था। बबूल के उन जादुई तनों में सांपों के कंकालों जैसे बहुत सफेद, नोकीले, खुश्क कांटे लिपटे हुए थे।

उन दरख्तों के नीचे उसी तरह की बौनी झाड़ियां थीं और उनके पीछे धुआं-धूल और पत्थरोंवाले टीले।

लकड़ी पर मवादभरी रसौलियों जैसी उभरी गांठें देखते हुए वे आगे बढ़ते रहे। ओझाओं की डरावनी कल्पना जैसी उस दुनिया में अनदेखे रास्ते में चीते ने उनको एकाएक खामोश कर दिया। उन्होंने दुबारा रास्ता दिखानेवाले उस युवक से भी कुछ नहीं पूछा।

आगे रास्ता सीधे जाने के बजाय उतरने लगा। हर घुमाव पर वह नीचे ही आता गया। इसी के साथ आसपास हरे दरख्त और झाड़ियां बढ़ने लगीं।

उस हरेपन ने उन्हें थोड़ा आश्वस्त किया। रास्ता जहां ज्यादा ढाल-पर उतरता था, वहां सिर के ऊपर भी कुछ लतरों के चिथड़े छू जाते थे। मगर लतरों से ऐसा संपर्क उन्हें बहुत अच्छा नहीं लगा। अंग्रेजी की बहुत-सी फिल्मों में देखे गए अफ्रीकी जंगलों की तुलना में ऐसा अनुभव हुआ जैसे एकाएक आदमी पर कोई अजगर आ कूदेगा। वैसा कुछ हुआ नहीं लेकिन उस थोड़े से अंतराल में उनमें से हर किसी ने अपने ऊपर कूद पड़े अजगर से एक छोटी-सी असफल लड़ाई लड़ ली।

टेपा में सही-सही गांव जैसा कुछ नहीं था, बल्कि किताबों और तस्वीरों के माध्यम से जो दिमागी तस्वीर है, उससे बहुत अलग था।

तीन कच्चे घर जैसे सामने थे लेकिन ऐसा लग रहा था जैसे वहां की हरियाली और दूर-दूर बिखरे दुबले जानवरों की हिफाजत के लिए कुछ ऐसे घरौंदे बना लिए गए हों, जिनमें सिर्फ अस्थायी तौर पर कोई रहता हो। उनमें दरवाजे नहीं थे लेकिन फर्श और दीवारों में एक तरह की सादी सफाई थी। एकाध दीवार के बाहर अजब-सी चित्रकारी भी थी।

लोगों का एक समूह उन घरों से काफी पहले ही खड़ा मिल गया। वह झुंड उन्हीं के इन्तजार में था। उनके आगे उनसे थोड़ा हटकर जो आदमी खड़ा था, उसने आगे बढ़कर पत्रकारों का स्वागत किया।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book