कहानी संग्रह >> मुद्राराक्षस संकलित कहानियां मुद्राराक्षस संकलित कहानियांमुद्राराक्षस
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कथाकार द्वारा चुनी गई सोलह कहानियों का संकलन...
"आप कौन हैं?" जेतली ने थोड़ी रुखाई से पूछा।
"जी, मैं वन अधिकारी हूं।"
"मगर हमने जिलाधिकारी महोदय को साफ कह दिया था कि हमें अपनी मौजूदगी में यहां
कोई अफसर नहीं चाहिए।" जेतली ने उत्तेजित होकर कहा।
"हां, यह बात सही है।" अपेक्षाकृत संयत प्रतिवाद के साथ शंकरदयाल बोले, "बात
यह है कि अफसरों के सामने ये लोग सच नहीं बोलेंगे।"
"सच क्या, झूठ बोलेंगे साहब।" जेतली ने ऊंची आवाज में कहा, "जैसा अफसरों को
पसंद है वैसा बोलेंगे।"
"लेकिन जिलाधिकारी ने गलत किया। हमने साफ कह दिया था।" कनु दा कहते हुए
उन्हें छोड़कर थोड़ा आगे बढ़ गए।
उनके आगे बढ़ते ही वहां जुट आई भीड़ घबराकर पीछे हटी। बहुत छोटे नंगे बच्चे
पत्थर के टुकड़ों की तरह दूर तक बिना रुके लुढ़कते चले गए। कनु दा रुक गए।
वह अधिकारी बेहद विनीत होकर क्षमायाचना करने लगा, “आप गलत न समझें। मैं यहां
रहूंगा नहीं। यह बहुत अजनबी जगह है। कोई भी जरूरत पड़ सकती है। मैं पानी
मंगवाता हूं। आप थोड़ा-सा हाथ-मुंह धो लें।"
"हमें जो जरूरत होगी, हम खुद देख लेंगे, धन्यवाद।" जेतली ने स्वर थोड़ा नीचे
करके कहा और कनु दा की ओर बढ़ गया। कनु दा सामने के मकान के ऊपर पड़े फूस पर
फैली लौकी की लतर देखने लगे थे।
“आप अगर चाय पहले पसंद करें।" वन अधिकारी ने और अधिक विनीत होते हुए कहा।
"नहीं जी, कछ नहीं।" जीवन राय भी गांववालों की ओर मुड़ गए।
"चाय-चाय तो चल ही सकती है।" दयाल ने सहसा सारी बाजी उलट दी।
जीवन, कन दा और जेतली ने एक साथ पूरा घूमकर दयाल की ओर देखा और फिर चुप हो
गए।
अधिकारी तुरंत किसी से बहुत धीमी आवाज में शायद चाय के लिए कुछ कहने लगा।
उसी वक्त हल्की-सी उथल-पुथल के साथ कुछ औरतों ने ऊंची आवाज में रोना शुरू कर
दिया।
आए हुए लोग ठिठक गए और अधिकारी ने परेशानी से इधर-उधर देखा। उससे रहा नहीं
गया, “अरे ये-ये लोग..."
जेतली ने तीखी नजरों से अफसर की तरफ देखा, "हमने कहा था न कि हमें आपका
हस्तक्षेप नहीं चाहिए।"
अधिकारी गहरी उलझन में पड़ गया, “जी बेहतर है। मैं उन्हें कुछ नहीं कह रहा
था।"
दयाल ने अपना कैमरा संभाल लिया। कनु दा ने कुछ इशारा किया। आए हुए लोग उन
चीखती-रोती औरतों की तरफ बढ़ गए।
उन औरतों की चमड़ी जली हुई थी। आग से नहीं, धूप से। झुलसे शरीरों पर लगभग एक
ही ढंग से लपेटी गई भूरी मिट्टी के रंग की धोतियों में कपड़े जैसा कोई लहराव
कहीं नहीं था, सहज अभ्यास से लपेटी गई धोतियां इस तरह स्थिर थीं जैसे सूखे
दरख्तों पर दीमक चढ़ गई हो।
खुश्क पेड़ों के बीच से हवा झपटती है तो एक मनहूस चीख में बदल जाती है। ठीक
वैसी ही चीख या रुलाई। यहां रोना भी डरावना होता है। अंधेरे में भयभीत
बिल्लियों की तरह दीमक चढ़े दरख्तों की वह कतार रो रही थी। उन अनाम और लगभग
अमूर्त आकृतियों का वह चीत्कार उनके कण्ठों से नहीं, आसपास दुबकी हुई उमस से
उठता लग रहा था।
जीवन राय उत्सुकतावश कुछ ज्यादा ही आगे बढ़ गए थे। तकलीफ के ऐसे इजहार के
रेंगते आते संस्पर्शकों के इतने नजदीक अपने-आपको पाकर वे अस्थिर हो उठे। बहुत
धीरे से एक कदम पीछे हट गए। इस बीच सिर्फ दयाल अपना काम करता रहा। कैमरे में
भरी हुई पूरी फिल्म समाप्त करके वह किनारे हट गया।
वे लोग शायद उसी तरह हतप्रभ खड़े रहते और औरतें रोती रहतीं, पर कनु दा सबसे
पहले उस आतंक से बाहर आए। उन्होंने अपनी हमेशा जैसी नर्म लेकिन सधी हुई आवाज
में पूछा, “तुम लोगों में से कोई हमें बताएगा कि उस दिन क्या हुआ था?"
उलझे नुचे हुए वालों की तरह हवा में उड़ता वह चीत्कार धीरे से ठहर गया, जैसे
इस अनुशासन का जन्मजात अभ्यास हो कि कोई सभ्य पुरुष बोले तो वहां शोर न हो।
रोना जिस तरह सहसा पानी-भरे सुराख से सांप की तरह बाहर आया था, उसी तरह गायब
भी हो गया और अब वहां सन्नाटा पहले से भी ज्यादा धूर्त हो गया। कनु दा की बात
का जवाब किसी ने नहीं किया। कनु दा ने यत्न भर आवाज थोड़ी और ऊँची की,
"देखिए, हम आपसे जानना चाहते हैं कि उस दिन आप लोगों के साथ क्या हुआ?"
जेतली ने जोड़ा, "देखिए, यहां कोई अफसर नहीं है। हम चाहते हैं कि आप खुलकर
बताएं।"
औरतों में कोई हरकत नहीं हुई। वे बोलीं भी कुछ नहीं। पत्रकारों के सवालों ने
छुआ किसी को नहीं। वहां सचमुच ही जैसे सिर्फ गूंगी दीमकों से भरी अचल
बांबियां भर खड़ी थीं अपने गहरे सूराखों में, कहीं अन्दर की तरफ, न दिखाई
देनेवाली, बेआवाज हलचल से भरीं।
बांबियों के उन गहरे खामोश सूराखों से उत्तर पाने के लिए जीवन राय और महादेव
के प्रयत्न भी बेकार हो गए।
"ये तो मुश्किल बात है।" कनु दा ने अपने-आप से कहा, “संवाद-हीनता...और क्या
कहेंगे इसे?"
"मुझे तो लगता है, इन्हें बहुत डराया गया है।" जेतली ने शंका प्रकट की।
"मगर सवाल यह है कि इनसे कुछ पूछा जाए तो कैसे?" महादेव भाई चिंतित होकर
बोले।
जेतली ने कहा, "अगर इन्हें डराया-सिखाया गया है तो कुछ जान पाना और मुश्किल
होगा। अच्छा ठहरिए, एक बार फिर कोशिश करें।"
जेतली ने उन औरतों में से एक को थोड़ा आगे आने के लिए कहा। अपनी बात दो बार
कही, पर औरतों की उस कतार में कोई हरकत नहीं हुई।
"क्या हमें आखिरकार इसी फॉरेस्ट ऑफिसर को माध्यम बनाना होगा?" कन दा निराश हो
गए। छोटी-सी नोटबुक जेब में रखकर कलम बंद करने लगे।
जीवन राय सहसा क्षुद्रता पर उतर आए। उन्होंने जेब से बटुआ निकाला और उसमें से
दस रुपये का एक नोट बाहर सरका लिया। उन औरतों की निगाहों के ठीक सामने वे उसे
थोड़ी देर, लेकिन स्पष्ट रूप से विज्ञापित करते रहे। फिर उन्होंने वह नोट
सबसे किनारे खड़ी आकृति की तरफ बढ़ा दिया।
जैसे शाख मरोड़ी गई हो, हाथ आगे आया और हल्की झिझक के साथ उसने वह नोट ले
लिया।
"बहुत ठीक, देखो..."
जीवन राय सिर्फ इतना ही बोल पाए। औरत मुड़ी और अपने ऊपर चढ़ी दीमक की वह परत
बिना हिलाए ऐसे बेआवाज वापस चली गई जैसे कोई आहट होती.तो पपड़ी झड़ जाती।
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