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मुद्राराक्षस संकलित कहानियां

मुद्राराक्षस

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :203
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7243
आईएसबीएन :978-81-237-5335

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कथाकार द्वारा चुनी गई सोलह कहानियों का संकलन...


वैसे यह पोस्टर बहुत अनपेक्षित भी नहीं था।

मार्टिन राम चर्च में बदल दी गई इस छोटी-सी इमारत में उन दिनों आए थे जल नाले से चिपकी चंद झोंपड़ियाँ ही थीं और इनमें या तो लग्गू के रिश्तेदार अपने ठेलों और भैंसों के साथ रहते थे या कुछ सब्जी वाले। इनके सामने की सड़क बहुत उपेक्षित, टूटी-फूटी थी और सड़क के दूसरी तरफ, जहां आज खासे सजे-धजे मकान हैं, एक बड़ा मैदान-सा था। इस मैदान में कभी मवेशियों का बाजार लगता था। इसी बाजार के कारकुनों के दो-चार मकान, काफी खस्ताहाल-से और थे। जिसमें आज चर्च है, वह अपेक्षाकृत ज्यादा बड़ा था। यहां चर्च हो जाने से आसपास के उन थोड़े-से ईसाइयों को आसानी हो गई थी, जिन्हें इतवार को काफी दूर जाना पड़ता था।

इसके बाद जाने कब और कैसे उस खाली मैदान में बड़े नियोजित ढंग से मकान बनने लगे। लगभग एक ही आकार की जमीनों पर सामने छोटे बगीचे और उसके बाद बरामदे-कमरे। लगभग हर एक मकान में पोर्टिको और गैराज।

इन मकानों के साथ ही नाले से चिपकी बस्ती के छोटे-छोटे घरों की तादाद भी बढ़ गई थी। और तब एक दिन मार्टिन राम के मित्रों ने यह सुझाव दिया था कि वे नाले के किनारे की बस्ती के गरीब बच्चों के लिए एक स्कूल खोल दें।

इन्हीं दिनों वहां मंदिर बना था। इसके बनते वक्त शायद किसी चर्च से तुलना का खयाल किसी को न आया हो, पर इस पूरे शहर में यह एक अकेला मंदिर तैयार हुआ था, जिसमें ऊंची छत वाला एक सभागार भी था, जिसमें तीन तरफ दीर्घाएँ थीं। मंदिर में प्राण-प्रतिष्ठा का बहुत बड़ा उत्सव मनाया गया था।

इस उत्सव के मौके पर मार्टिन राम खुद वहां आए थे। बातचीत के बीच लोग हैरान रह गए थे जब मार्टिन राम ने खासे अच्छे उच्चारण में संस्कृत के कुछ श्लोक सुनाए थे। उन्होंने 'एकं सद्विप्रा बहुधा वदंति' की बड़ी खूबसूरत व्याख्या भी की थी। वे काफी उत्साह में दिख रहे थे, पर उन्होंने ध्यान नहीं दिया था कि उनसे थोड़ी दूर बैठे कुछ लोग उन्हें गहरे संदेह से देख रहे थे।

मार्टिन राम के जाने के बाद वहां बैठे लोगों को सहसा लगा, जैसे संस्कृत के श्लोक सुनाकर वे वहां अपनी धाक जमाने के चक्कर में रहे हों।

पंडित चंद्रदत्त वेदतीर्थ आसपास बैठे युवाओं के चेहरे ठीक-ठीक पढ़ रहे थे।


धीरे से बोले, 'अब ईसाई और पारसी हमें संस्कृत सिखाएंगे।'

'संस्कृत सिखाएं या फारसी, सवाल यह है कि इनकी करतूतों पर कभी ध्यान दिया है आपने?' एक युवक बोला।

"क्या मतलब?"

"वेदतीर्थ जी, आप वेद का तीर्थाटन करते रहिए। इस पर भी ध्यान दिया है कि जितनी तेजी से ईसाई धर्मांतरण कर रहे हैं, न बचेंगे वेद, न बचेंगे तीर्थ!"

इस तल्ख संवाद की अगली शाम एक जुलूस निकला। एक बहुत सजी-धजी गाड़ी पर फूलमालाओं से लदा एक चांदी का छत्र था, जो आसपास के लड़कों ने कुलीन माने जाने वाले घरों से चंदा इकट्ठा करके खरीदा था। इस गाड़ी के पीछे ढोल-ताशे और झांझ-मंजीरे वालों के साथ कीर्तन करते और अबीर-गुलाल उड़ाते लोगों की भीड़ थी।

जुलूस चर्च के सामने पहुंचा तो उसमें शामिल युवकों ने पटाखे छोड़ना शुरू कर दिया। यह अनायास नहीं था कि उन्होंने जो हवाइयां छोड़ी वे ज्यादातर मार्टिन राम की खुली खिड़कियों के अंदर गईं। जब ऐसी कई हवाइयां अंदर ही गईं तो चेहरे के हल्के तनाव के बावजूद मुस्कुराते हुए मार्टिन राम बाहर आए।

शरीर से वे बहुत ज्यादा ही लंबे-चौड़े थे। खुद अपने दरवाजे में भी उन्हें हल्का-सा झकना पड़ता था। एक क्षण के लिए आतिशबाजी वाले लड़कों के हाथ रुक गए थे. फिर उन्होंने हवाइयां खिड़कियों के बजाय आसमान की ओर छोड़ना शुरू कर दिया था और आगे बढ़ गए थे।

इसके बाद उस चर्च के ऊपर लगे छोटे-से क्रॉस को किसी ने तोड़ दिया। वह तोड़ना आसान काम नहीं था। जरूर उसके लिए या तो लंबे बांस का प्रयोग किया गया होगा या फिर रस्सी इस्तेमाल की गई होगी। आम तौर पर वे रात यहीं बिताते थे, पर कभी-कभी मरीजों को दवा देने के बाद वे सप्ताहांत में गोमती पार की एक पुरानी बस्ती चांदगंज चले जाते थे। वहां से लौटते देर हो जाती थी। उस दिन भी यही हुआ था। देर रात उन्होंने गाड़ी खड़ी की और ताला खोलने जा ही रहे थे कि वह गिरा हुआ सीमेंट का क्रॉस उन्हें दिखाई दिया।

यहां वे काफी दिन से थे और नाले के किनारे बसे लोगों के हमदर्द हो गए थे, ऐसा उन्हें लगता था। पर अब वे समझ नहीं पा रहे थे कि ऐसा क्या था, जो इसके बावजूद उन्हें उन सबसे अकेला किए हुए था। उस रात वे लेटे तो नींद नहीं आई। उनकी इच्छा हुई कि वे अपने मित्रों में से किसी को फोन करें और यह घटना बताएं, पर उन्होंने कुछ नहीं किया। अपने अकेलेपन को वे और अधिक गहराता महसूस करते रहे थे।

मार्टिन राम गाड़ी बहुत धीरे चलाते थे, भले ही सड़क कितनी ही खाली क्यों न हो। अजनबी जगह दूसरी गाड़ियों वाले उन्हें कोई नौसिखुआ मानकर घूरते हुए आगे निकलते थे। आज मंदिर में हो रही घटना सुनकर उनकी गाड़ी की रफ्तार और धीमी हो गई थी। वे सोचने लगे-कैसी है यह नाले से चिपकी बस्ती? मंदिर में बहुत जोर-जोर से ढोल बजे जा रहे थे और उनकी आवाज उन्हें अब भी सुनाई दे रही थी। निश्चय ही ढोल बजाने वाले प्रेम और भुल्लू ही होंगे। उनका घर भी इसी नाले से चिपका हुआ था। दुर्गा पूजा जैसे मौकों पर या घरों के छोटे-मोटे उत्सवों में वे ढोल बजाते थे और बाकी दिनों में गलियों में घूमकर औरतों की फटी हुई ढोलकें झिल्ली वाले चमड़े से मढ़ने का काम करते थे। औरतों को प्रभावित करने के लिए वे बहुत उम्दा गाते-बजाते रहते थे।

नोखे रद्दी वाले का परिवार प्रेम और भुल्लू के पास ही था और कभी शाम को वे भी दाल में पकी आटे की टिक्कियां खाते थे या प्लास्टिक की थैली वाली शराब में हिस्सा बंटाते थे। आज नोखे के लड़के का लगभग जीवित दाह हो रहा था और उसके आसपास नाचकर वही लोग ढोल बजा रहे थे।

ढोल बजाना प्रेम और भुल्लू के लिए एक यांत्रिक काम था। अक्सर जब वे बारातों में बजाते थे, उस वक्त नशे में नाचते हुए बारातियों के साथ खुद भी नाचते थे।

मंदिर के पिछले आंगन में हालकि इस अनुष्ठान के दौराने सबका आना वर्जित था, लेकिन फिर भी काफी लोग चहारदीवारी से सटकर आ खड़े हुए थे।

न्यायाधिकरण के आचार्य बृहस्पति नोखे के लड़के से काफी दूर डाली गई एक चौकी पर बैठे थे। उन्होंने बिना किसी ओर देखे कहा, "शोध्य के वस्त्र सूखने न पाएं।"

नोखे के लड़के की कमर में लपेटा काला कपड़ा सूखा नहीं था, फिर भी माली ने कमर से एक बार फिर थोड़ा पानी डाल दिया।

बृहस्पति मंत्र-पाठ करने लगे, “ओम त्वं मायाभिरपि मायिनोऽधमः स्वधार्भिर्ये अधि शुप्तावजुह्वत..."

पिछले छज्जे पर बैठे प्राश्निक चुपचाप देख रहे थे। मंत्र-पाठ के बाद आचार्य बृहस्पति याज्ञिक को संस्कृत में आदेश देने लगे, "आठों दिशाओं में आठ देवों पर ध्यान केंद्रित करें और देवों से स्थान ग्रहण करने की प्रार्थना करें। आठ वसुओं को इंद्र के दक्षिण में स्थान दें। बारह आदित्यों को इंद्र एवं ईशान के बीच, ग्यारह रुद्रों को अग्नि के पूर्व-"

रात उतरने लगी थी और उस आंगन में बिजली की रोशनी बहुत तेज नहीं थी। बहुत बड़े आकार की अंगीठीनुमा भट्ठी से अब डरावनी लपटें उठने लगी थीं। आसपास बहुत जबर्दस्त सन्नाटा था।

बाहर नोखे की बीवी शायद फिर आ गई थी, क्योंकि उसकी आवाज अंदर तक पहुंच रही थी। बाहर ही किसी ने उसे डांटा, "अरे, भागती है यहां से या लगाए जाएं डंडे!"

उसकी आवाज बंद नहीं हुई। मार्टिन राम असमंजस में घिरे थोड़ी देर कमरे में टहलते रहे, फिर उन्होंने दीवार में जड़ी ईसा की मूर्ति की तरफ देखा, "हे येरूशेलम की पुत्रियो, अपने और अपने बालकों के लिए रोओ, क्योंकि देखो, वे दिन आते हैं, जिनमें कहेंगे, धन्य हैं वे जो बांझ हैं और वे गर्भ जो न जने गए और वे स्तन जिन्होंने दूध न पिलाया। उस समय वे पहाड़ों से कहने लगेंगे, हम पर गिरो और टीलों से कि हमें ढांप लो।"

वे बाइबिल का कुछ भी पढ़ें या याद करें, भावुक हो जाते थे। उनका गला भर आता था और आंखें डबडबा आती थीं।

उसी हालत में वे पुलिस थाने आए। थाना ज्यादा दूर नहीं था। नाले से चिपकी बस्ती को काटता हुआ जो पुराना पुल था, उसे पार करने के बाद ट्रकों पर सामान ढोने वाले लोगों का एक इलाका था और उसके छोर पर बहुत-सी गाड़ियां 'लाश के वास्ते' की तख्तियां लगाए खड़ी होती थीं, वहीं पुलिस थाना था। थाने में घुसते ही बाईं ओर एक मंदिर था, जिसके चबूतरे पर बैठे तीन-चार सिपाही पुजारी का रामचरितमानस पाठ सुन रहे थे। उन्होंने वह देखा। इसमें संदेह नहीं कि उस दृश्य ने उनकी निराशा थोड़ी-सी बढ़ा दी।

वे दाहिनी ओर बरामदे में खड़े एक सिपाही से मुखातिब हुए, “सुनिए, साहब हैं क्या?"

उन्होंने अपना परिचय भी तत्काल दिया। सिपाही ने उन्हें बता दिया। अंदर मेज पर बैठा पुलिस अफसर खीझी हुई आवाज में पास खड़े छोटे अधिकारी को कुछ समझा रहा था। उसने मार्टिन राम को देखा, लेकिन ध्यान नहीं दिया। कुछ देर इंतजार करके मार्टिन राम ने अपना परिचय दिया।

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