कहानी संग्रह >> मुद्राराक्षस संकलित कहानियां मुद्राराक्षस संकलित कहानियांमुद्राराक्षस
|
7 पाठकों को प्रिय 2 पाठक हैं |
कथाकार द्वारा चुनी गई सोलह कहानियों का संकलन...
सड़क के उस पार कुलीन लोगों ने अपने मकानों की चहारदीवारी या खिड़कियों से
नाले के किनारे इकट्ठा हुई भीड़ देखी और जल्दी ही उसका कारण भी समझ गए और
उन्हें खासा ही संतोष हुआ कि आखिर विधाता न्याय करता है। जो जैसा करेगा वैसा
ही भरेगा भी तो। ईश्वर सब देखता है।
यह विचित्र बात थी कि इन कुलीन घरों में रहने वालों का नाले के किनारे के
गंदे घरों में रहने वालों ने कभी कुछ नहीं बिगाड़ा था, फिर भी उनके बारे में.
सड़क के उस पार के उस विष्णुनगर के लोग उन्हें इस तरह देखते थे, जैसे वे कोई
संक्रामक रोग हों। नाले के घरों में रहने वाली औरतें कसर विष्णुनगर की
महिलाओं की मदद भी करती थीं, पर इसका कोई असर उनकी नफरत पर नहीं पड़ता था।
जहां विष्णुनगर खत्म होता था वहां ऐशबाग शुरू हो जाता था। यहीं एक छोटा-सा
स्कूल था-सेंट जॉन स्कूल। यह दूसरे अंग्रेजी स्कूलों जैसा नहीं था। नहर के
किनारे बसी इस बेहद मैली बस्ती से मिलती-जुलती वहां और बस्तियां भी थीं।
इन्हीं बस्तियों के बच्चे पादरी मार्टिन राम के इस स्कूल में पढ़ते थे। सारे
बच्चे नहीं, बहुत थोड़े से, मुश्किल से पच्चीस। इसी स्कूल के एक छोटे-से
हिस्से में मार्टिन राम का एक कामचलाऊ चर्च भी था।
मार्टिन राम ने गाड़ी रोककर पलटकर देखा। वह नोखे की बीवी ही थी। लगता था,
जैसे वह लगातार कराह रही हो। मार्टिन राम ने गाड़ी थोड़ा आगे बढ़ाकर सड़क के
किनारे खड़ी की और उतर पड़े।
नोखे की बीवी को पर्याप्त दूरी तक धकेल लाने के बाद वे युवक रुक गए। उसे
घुड़ककर बोले, “अब उधर आई तो इच्छा नहीं होगा।"
वे वापस हुए तो नोखे की बीवी फिर पलट पड़ी। युवकों ने मुड़कर देखा और चीखे,
“बात समझ में नहीं आई? लगाऊं?"
औरत कुछ क्षण खड़ी रही, फिर धीरे-धीरे सीने पर हथेलियां मारकर रोने लगी।
मार्टिन राम असमंजस में खड़े देखते रहे। इस बीच मंदिर से ऊंची आवाज में
मंत्र-पाठ शुरू हो गया था, “ओ३म् अक्षण्वंतः कर्णवंतः सखायो मनोजवेष्वसमा
वभूव..."
बालकनी में बैठे संस्कृताचार्य ने कथाकार, विचारक और वयोवृद्ध आलोचक
ऋग्वेदाध्यायी से कहा, "यह मंत्र आपने सुना? वैदिक ऋषि कहते हैं, नेत्र आदि
इंद्रियों के एकसमान होने से ही सभी मनुष्य समान नहीं होते। बुद्धि और मन के
कारण वे असमान होते कथाकार विचारक ज्यादा विभोर थे। पतली आवाज में सधे शब्दों
में बोले. “पंडितजी, आप जिसे ऋत कहते रहे हैं वह मैं ज्यादा तो नहीं जानता,
पर शायद यहां लगता है, हम ऋत के निकट हैं। ये हैं हमारी जड़ें। इन जातीय
स्मृतियों से साक्षात् एक अद्भुत अनुभव है। आपको याद होगा 'जय जानकी यात्रा'
के दस्तावेजों का, जिनमें कहीं वात्स्यायन जी ने कहा है, एक चिंतक और
सांस्कृतिक कर्मी के रूप में जातीय स्मृति के इस पक्ष से उन्हें वैचारिक
उत्तेजना मिली थी।"
तभी याज्ञिक की आवाज सुनाई दी, “प्राश्निक प्रवर पश्चिम की ओर बाहरी दीर्घा
में स्थान ग्रहण कर लें।"
अब पीछे की ओर से ढोल, झांझ और शंख की ऊची आवाजें आने लगीं।
लग्गू अपनी नन्ही-सी दुकान के पीछे ध्यानस्थ मुद्रा में बैठा था। मार्टिन राम
उस रोती हुई औरत की तरफ से ध्यान हटाकर अपनी मोटर में बैठने लगे तो उनकी नजर
अनायास लग्गू की तरफ गई। लग्गू ने हमेशा की तरह हाथ जोड़कर उन्हें नमस्कार
किया, फिर थोड़ी दूर पर सड़क के उस पार वाले मकानों की पंक्ति के बीच बने
मंदिर के बाहर की भीड़ की तरफ देखा।
मार्टिन राम को लगा, अब पूछ ही लेना चाहिए कि माजरा क्या है? यह उन्हें जरूर
लग रहा था कि वहां कुछ असामान्य था। गाड़ी के अंदर एक पैर रखे हुए ही
उन्होंने लग्गू से पूछा, “बात क्या है?"
लग्गू उठकर उनके पास आ गया, "कभी अपनी मोटर में बैठाइए पादरी साहब!"
"बैठाऊंगा, बैठाऊंगा, पर ये वहां..."
"वो भी तो साला मादरचोद है। अब कोई क्या कर सकता है?"
"बात क्या है? क्या मंदिर में कुछ गड़बड़ी की किसी ने?"
"अरे, उसकी हिम्मत कौन कर सकता है? पर पादरी साहब, आपने हमारा काम नहीं
कराया। आप चाहेंगे तो दो मिनट में हो जाएगा। वो हरामी हवलदार साला, इस
बेटीचोद विजय सिंहवे को दूसरे थाने भिजवा दीजिए।"
मार्टिन राम को ऐसी गालियां सुनने का अच्छा अभ्यास हो गया था। नाले से चिपकी
इस बस्ती का हर कोई बेहतरीन गालियों का अभ्यासी था। बाप बेटे को मां की गाली
देता था। बेटी मां को इसी तरह की शुद्ध गालियां देती थी। मार्टिन राम रात आठ
से दस बजे तक दो घंटे के लिए इसी बस्ती में रहने वालों को होम्योपैथी की
दवाएं देते थे। दवा लेने वाला अपने रोग तक के बारे में इसी तरह बताता था,
"क्या बताऊं पादरी जी, गांड फट जाती है, मगर टट्टी नहीं उतरती मां की लौड़ी-"
मार्टिन राम लग्गू की इस हमेशा जैसी आलंकारिक भाषा पर मुस्कुराए, और मोटर में
अपने बेहद लंबे-चौड़े शरीर को समेटकर बैठ गए। छोटे आकार की उस फॉक्स वैगन में
वे बैठकर ऐसे लगते थे, जैसे अटैची में किसी ने भारी-भरकम रजाई लूंस दी हो।
उन्हें अपना सिर भी थोड़ा-सा झुकाए रखना पड़ता था।
उनके मोटर में बैठ जाने के बाद लग्गू ने उसका दरवाजा पकड़ा और उनकी ओर झुक
आया, बोला, “ये टीटू मादरचोद फंसा बुरा। साले का चूतड़ सुलगकर रह जाएगा। वो
है न टुंडा कबाबी मादरचोद, उसके बजाय चूतड़ के कबाब भुनेंगे।"
गाड़ी का इंजन चालू करते-करते मार्टिन राम फिर रुक गए। थोड़ा खीझकर बोले,
"बात क्या है, साफ-साफ बोलो!"
उसकी बीवी पता नहीं कहां से प्रकट हो गई। उसने लग्गू को चार-छह गालियां
सुनाई, फिर मार्टिन राम से बोली, “ये सब कोठी वाले मां के खसमों की अंधेर
है।"
“हुआ क्या?"
लग्गू की बीवी ने बताया कि कोठी वाले नोखे के लौंडे को पकड़ ले गए हैं। मंदिर
में। कहते हैं, उसने किसी कोठी वाले की बहू का हार चुराया है। हरामजादी ने
किसी यार को अपनी चुदाई का मेहनताना दिया होगा और बहाना बना दिया कि इसने
चुरा लिया।
"इस पर कैसे इल्जाम लग गया?" मार्टिन राम ने पूछा।
"अरे, ये नोखे का लौंडा हरामजादा रद्दी अखबार लेने जाता है न कोठियों में!
बस, इसी का नाम लग गया।"
"इसने चोरी सचमुच नहीं की?"
"क्या बात करते हैं पादरी साहब! ये हरामी तो सड़क पर गिरी चवन्नी न उठाए।"
"तो क्या मारा-पीटा है?'
|