कहानी संग्रह >> मुद्राराक्षस संकलित कहानियां मुद्राराक्षस संकलित कहानियांमुद्राराक्षस
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कथाकार द्वारा चुनी गई सोलह कहानियों का संकलन...
आचार्य थोड़ा-सा सहज होकर बोले, "याज्ञवल्क्य में उद्धत बृहस्पति का वचन है
कि जिस शूद्र की परीक्षा होनी है, उसे लाल वस्त्र पहनाया जाए।"
याज्ञिक ने संस्कृत में ही कहा, "पहना दिया है आचार्य!"
आचार्य बोले, "और भी कहा है, उसके मुंह पर श्मशान की राख पोती जाए, छाती पर
बकरे के खून में डुबोई पांचों उंगलियों की छाप लगी होनी चाहिए और गले में पशु
अंतड़ियों की माला लटकाई जानी चाहिए-यह घोषणा करिए।"
याज्ञिक ने घोषणा की, "शूद्राणांतु यथाह बृहस्पतिः। तं क्लैव्येनालं
कारेग्रालंकृत्य शवभस्मना मुखं विलिप्याग्नस्य पशो शोणितेनोरसि पंचांगुलानि
कृत्वा ग्रीवायाम् आंत्राणि प्रतिमुच्य सव्येन पाणिना सीमालोप्टं मूर्धिन
धारयेति। इति याज्ञवल्क्येन स्मृतम् विश्वरूपे।"
सभी ने कहा, “इति याज्ञवल्क्येन स्मृतम् विश्वरूपे।"
मंदिर के बाहर सीढ़ियों के नीचे अब काफी भीड़ इकट्ठी हो चुकी थी। शाम लोने
वाली थी और आसमान आश्चर्यजनक रूप से पीला हो रहा था। सामने के बहुत पुराने
पीपल के पेड़ पर ढेरों परिंदे चीख रहे थे। भीड़ बिल्कुल खामोश थी, पर भीड़ से
काफी दूर कोई औरत कराह रही थी और कुछ बच्चे रो रहे थे।
शायद उनकी ये आवाजें आचार्य ने भी सुनी हों। उन्होंने एक बार सख्त निगाहों से
बाहर की तरफ देखा। याज्ञिक थोड़ा अस्थिर हुए, फिर उठकर भीड़ की तरफ आए। ऊपर
से ही दबी आवाज में उन्होंने रुदन बंद कराने के लिए कहा। सामने से दो-तीन
युवक बड़ी तेजी से भीड़ चीरकर पीछे गए।
पादरी मार्टिन राम लगभग इसी वक्त लौटते थे। उनके पास आज भी एक बहुत पुरानी
फाक्स वैगन बीटल गाड़ी थी, जिसमें इंजन पीछे लगता है। यह रास्ता थोड़ा छोटा
पड़ता था गोकि इधर भीड़ काफी होती थी। पर आज मंदिर के सामने सड़क पर और दिनों
से ज्यादा भीड़ थी। उनकी गाड़ी बहुत मुश्किल से ही आगे निकल पाई। भीड़ से आगे
निकल जाने पर मार्टिन राम को थोड़ी हौरानी हुई। मंदिर में कीर्तन वगैरह कुछ
नहीं हो रहा था, फिर भी वहां इतनी भीड़ थी और भीड़ भी लगभग एकदम खामोश थी।
तभी उनकी नजर पड़ी, कुछ लोग एक पागल जैसी दिखती औरत और दो-तीन बच्चों को लगभग
धकेलते हुए भीड़ से दूर ले जा रहे थे। मार्टिन राम ने गौर किया तो उस औरत को
पहचान गए। वह नोखे कबाड़ी की विधवा थी।
किसी जमाने में नहर कहे जाने वाले एक बहत गहरे नाले के किनारे धीरे-धीरे कुछ
ऐसे लोग बसते गए थे, जिनकी हैसियत शहर में बसने की नहीं थी, लेकिन जिनके बिना
शहर का काम नहीं चलता था। खुद इनका काम भी शहर से ही चलता था। इस नाले में
शहर के एक बहुत बड़े हिस्से की गंदगी बहती रहती थी। नाले के दोनों किनारे
बहुत ढालदार, लगभग दो-तीन मंजिल इमारत के बराबर गहराई तक चले गए थे। किनारे
अच्छी तरह पत्थर जमाकर बनाए गए थे, इसलिए लगभग दो सदियां ऐसे ही झेल गए थे।
नहर या नाले के किनारे हाजत रफा करने को बैठ गए बेहद मैले से लोगों की कतार
की तरह जो बस्ती बस गई थी, उसी में किसी समय कंजड़ों के कुछ परिवार भी आ बसे
थे। वे बहुत तरह के छोटे-मोटे काम करते थे, जैसे भुट्टे बेचना, सब्जी या सड़े
फलों की टोकरियां लेकर बेचना, शहर में खपने वाले सामान लादकर जाती हुई
गाड़ियों के पीछे लपककर कुछ माल झटक लेना और आपस में झगड़े करने के लिए कोई
भी बहाने खोज लेना। उनके आपसी झगड़े बहत खौफनाक लगते थे, पर अक्सर उनका अंत
बेहद बेमजा होता था। इसी कतार में कुछ धोबी, पत्थर कूटने वाले, कबाड़ी और
बहुत-से दूसरे छोटे-छोटे धंधे करने वाले रहते थे। उनमें से ज्यादातर लोगों ने
इधर-उधर से कुछ ईंटें, टूटे-फूटे बांस, तख्ते और टाट जैसी चीजें जुटाकर अपनी
झोंपड़ियां बना ली थीं। चूंकि वे लोग निरंतर ऐसी चीजें जुटाने के चक्कर में
रहते थे इसलिए एक लंबे अरसे में इन झोंपड़ियों में से बहुतों की दीवारें
पक्की और ऊंची हो गई थीं।
शुरू में हर झोंपड़ी में रहने वाला सुबह हाजत के लिए अपने घर के पीछे नाले के
किनारे का इस्तेमाल करता था, फिर धीरे-धीरे पीछे दो ईंट रखकर टाट का पर्दा
लटकाया जाने लगा था। फिर टाट के परदे की जगह पुराने जंग खाए टिन के टुकड़ों
ने ले ली। अब नहर के दूसरे किनारे पर बनी ऊंची इमारतों की खिड़कियों से देखने
पर लगता था जैसे उस पार की ये झोंपड़ियां ही हाजत रफा कर रही हों।
इन सभी लोगों से सबसे अच्छी जान-पहचान नोखे कबाड़ी की हुई। वह शहर-भर में
घूम-घूमकर टूटा-फूटा पुराना सामान खरीदता रहता था। ऐसे बहत-से डिब्बे या
बाल्टियां वह ले आता था, जिनकी मरम्मत करके उनसे काम लिया जा सकता था। कई
लोगों ने उससे टूटी चारपाई तक खरीदी थी। ऐसी चीजें बहुत कम दामों में मिल
जाती थीं। उन्हें ठीक करने वाले लोग भी नाले के किनारे कड़े और मैल की तरह
चिपकी उसी बस्ती में मिल जाते थे, इसलिए नोखे को बहुत ही सस्ते में वे खाली
थैले मिल जाते थे। इन थैलों की भी इस बस्ती में खासी खपत हो जाती थी।
नोखे का यह रद्दी का उद्योग ऐसा था, जिसमें उसकी बीवी भी हिस्सा बंटाती थी और
बच्चे भी। बेटा थोड़ा बड़ा था। वह तराजू-बांट टोकरी में रखकर रद्दी अखबार
खरीदने निकल जाता था। औरतें उसे बहुत गालियां देती थीं और अपनी आंखों के
सामने बड़ी खशी से दो किलो रद्दी एक किलो तुलवाकर देती थीं।
नोखे की बीवी सुबह एक बड़े पतीले में खाना चढ़ा देती थी। यह पूरा भोजन होता
था। पतीले में कुछ देर अरहर की दाल पकने देती थी। अच्छी तरह उबल जाने के बाद
गूंधे हुए आटे की बिस्कुट के आकार की टिक्कियां बनाकर उसमें छोड़ देती थी। यह
खाना ताजा तो अच्छा लगता ही था, शाम को बासी हो जाने पर और स्वादिष्ट हो जाता
था। दाल पूरी तरह जम जाती थी और वे टिक्कियां उसमें से खोद-खोदकर निकाली जाती
थीं।
इसके बाद नोखे की बीवी तीन छोटे बच्चों के साथ अपने काम पर निकलती थी। उसने
प्लास्टिक के थैले सिलकर बहत भारी-भरकम बोरे बना लिए थे। एक नुकीली-सी लोहे
की छड़ी की मदद से सड़क पर पड़े रद्दी कागज और प्लास्टिक उठाकर इसी थैले में
इकट्ठा किए जाते थे। यह माल उन्हें उस जगह बहुतायत से मिलता था, जहां
नगरपालिका के मेहतर शहर की गंदगी की गाड़ियाँ उलट जाते थे। हर नई गाड़ी डाली
जाने के बाद आवारा फिरने वाली गाएं, कौए और कुत्ते इकट्ठा हो जाते थे। उनके
बीच नोखे के बच्चे कूड़े को बड़ी रुचि से उलटते-पलटते थे, क्योंकि उसमें
अक्सर पुराने खिलौने, टूटी पेंसिलें और अल्युमिनियम की चूड़ी जैसी चीजों के
साथ सिक्के भी मिल जाया करते थे। इन चीजों को इकट्ठा करते वक्त वे इस कल्पना
से बहुत खुश हुआ करते थे कि कभी उन्हें कोई सोने या चांदी का ऐसा जेवर भी मिल
सकता था, जो किसी अमीर औरत की बेशऊरी से गिरकर खो गया हो। इत्र की छोटी शीशी
के लिए वे आपस में लड़ भी जाते थे, जिसमें इत्र तो बिल्कुल नहीं होता था, पर
खुशबू खूब महसूस होती थी।
यह भी अजीब बात है कि पुलिस की नजरों में सबसे ज्यादा चोर-उचक्कों की आबादी
भी इसी बस्ती में थी। उसे बड़ी आसानी से अपनी रुचि या पसंद के बहुत-से लोग इस
बस्ती में ही उपलब्ध थे। गयास ताले-चाबी वाले को अक्सर पकड़ लिया जाता था,
क्योंकि पुलिस को विश्वास था, शहर के हर घर का ताला चोरी के लिए वही खोलता
था। मंगतराम इमारतों की पुताई का काम करता था, पर पुलिस का ख्याल था कि वह
शातिर चोरों के किसी गिरोह से जुड़ा था और पुताई के बहाने घर की संपत्ति और
घुसने-निकलने के रास्ते का जायजा लेता था।
इन सबकी तुलना में वहां एक बेहतर मकान भी था। उसकी छत सीमेंट और सरियों से
बनी थी। छत पर एक और कमरा भी था। इसमें लोहे की ग्रिल वाली खिड़कियां भी थीं।
यह मकान लग्गू कंजड़ का था। कभी उसका बाप यहीं एक नन्ही-सी झोंपड़ी डालकर
रहता था। वह भैंसे द्वारा खींचे जाने वाला एक बड़ा-सा. ठेला चलाता था। इस
ठेले पर वह अनाज, फल और लोहे की वे मशीनें लादता था, जिन्हें रेलवे स्टेशन से
शहर के व्यापारियों के यहां पहुंचाना होता था। ठेले की धुरी के पास लोगों की
नजरों से छुपा बोरे का एक थैला लटका रहता था। शाम को जब वह लौटता था तो उस
थैले से बहुत-सी चीजें निकलती थीं, जैसे केले, संतरे, अनाज या साबुन की
दो-चार टिक्कियां। शहर की सड़कें अच्छी बन जाने के बाद उसको अपना ठेला बंद
करना पड़ा था और इसके बाद एक दिन बहुत ज्यादा शराब पीने की वजह से मर गया था।
उसके बेटे लग्गू कंजड़ ने भैंसा कसाइयों के हाथ बेच दिया।
लग्गू एक और धंधा बहुत छोटी उम्र से करता था। वह कच्ची शराब की अवैध बोतलें
पहुंचाता था। बाप जब मरा तब तक ठेकेवाले प्लास्टिक की थैलियों में शराब बेचने
लगे थे। इन थैलियों का काम ज्यादा आसान था। इसका एक बड़ा कार्यकुशल तंत्र था।
फैक्टरी की देशी शराब की बहुत-सी थैलियां बिना एक्साइज के निकल आती थीं। ये
थैलियां आम थैलियों से दो-तिहाई दामों पर बिकती थीं। कुछ दिनों से लग्गू ने
अपने मकान के दरवाजे से सटाकर लकड़ी का एक खोखा लगा लिया था। इसमें सस्ती
टॉफियां, बिस्कुट और बच्चों की पसंद की कई चीजों के अलावा सिगरेट, बीड़ी,
माचिस, नमक की थैलियां, सस्ते साबुन और पान मसाले के नन्हे पैकेट रखता था।
रात के वक्त जब आवारा कुत्तों के अलावा ज्यादातर लोग सो जाते थे, लग्गू का
असली काम शुरू होता था। लग्गू बीच-बीच में कभी पूरी तरह गायब हो जाया करता
था। उस बीच उसकी वह छोटी-सी दुकान बंद रहती थी और उसकी बीवी या बच्चों को
देखकर कोई यह अनुमान नहीं लगा सकता था कि लग्गू क्यों गायब है। और एक सुबह वह
गालियां देता हुआ प्रकट हो जाता था। और किसी को तो नहीं, पर जब पादरी मार्टिन
राम उसे ऐसे मौके पर दिख जाते थे, वह ऊंची आवाज में बोलने लग जाता था,
"देखिए! देख लीजिए साहब! ये हरामी पुलिस वाले हर महीने मुझसे पैसा ले जाते
हैं। फिर भी देख लीजिए, उन्होंने किस बुरी तरह मारा है।"
आसपास के लोग चुपचाप अपना काम करते रहते थे और लग्गू सरेआम अपने नंगे बदन पर
झूलता पटरीदार जांघिया उतार देता था। घूम-घूमकर अपने चूतड़ और जांघों पर बने
पिटाई के निशान दिखाता था।
इस बस्ती के ठीक सामने से गुजरने वाली सड़क के दूसरी तरफ कुलीन लोगों के
ऊंचे-ऊचे मकान थे। इन मकानों में रहने वालों का खयाल था कि नाले से सटी बस्ती
चोरों, उचक्कों और बदमाशों की बस्ती है। यह बात वे जोर से कभी नहीं कहते थे।
छोटे-मोटे त्योहारों या घरेलू उत्सवों में मिलने पर वे इस बस्ती को लेकर बहुत
चिंता जाहिर करते थे। वे बड़ी बुद्धिमानी से कहते थे, “संस्कारों का सवाल है।
संस्कार हैं नहीं। इनके बच्चों को देखो। पढ़ना न लिखना। चोरी, उठाईगीरी नहीं
करेंगे तो क्या करेंगे?"
इसी के चलते कबाड़ी नोखे की मृत्यु हुई थी। नोखे को एक गली में एक नई. लेकिन
टी-फूटी फाइबर ग्लास की खाली अटैची लावारिस पड़ी हुई मिली थी। उसने उसे गौर
से देखा। अटैची उम्दा थी, मगर वह काम लायक नहीं थी। लगता था, जैसे उसे किसी
ने नारियल की तरह फोड़ दिया हो। उसने अटैची उठाई और अपनी टोकरी में रख ली। वह
अटैची दरअसल पास के रेलवे स्टेशन पर चोरी हुई थी और एक बहुत बड़े अफसर की थी।
चुराने वाले ने खोलने में वक्त बरबाद करने के बजाय उसे तोड़ दिया था।
इसी टूटी अटैची के साथ नोखे पुलिस थाने लाया गया था। नोखे की बीवी के आग्रह
पर मार्टिन राम रात को थाने गए थे। थाने से पता लगा, उन्होंने उसे कब का छोड़
दिया था। बाद में नोखे की लाश अगली सुबह उसी नहर या नाले नाम की चीज में मिली
थी, जिसके किनारे उसकी झोंपड़ी थी।
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