कहानी संग्रह >> मुद्राराक्षस संकलित कहानियां मुद्राराक्षस संकलित कहानियांमुद्राराक्षस
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कथाकार द्वारा चुनी गई सोलह कहानियों का संकलन...
दिव्य दाह
मंदिर की छहों सीढ़ियों पर पंडित रामाज्ञा मिश्र ने पीतल के चमकते हुए कमंडल
में आम के पांच पत्ते डुबा-डुबाकर गंगाजल के छींटे डाले, फिर बहुत झुककर
आचार्य बहस्पति को ऊपर चढ़ने का संकेत दिया। आचार्य ने इधर-उधर देखा। उनके
सिर पर बाल बहत कम थे। सिर के बहुत पीछे की ओर थोड़े से लंबे बाल खींचकर
उन्होंने शिखा बांध रखी थी। कमर में एक बहुत बारीक और उजली धोती थी, जिसका एक
सिरा उन्होंने कंधों पर डाल रखा था, पर इससे उनका जनेऊ छुपा नहीं था। उनके
कंधों और सीने पर चंदन लगा हुआ था। माथे पर लाल चंदन का एक चौडा तिलक था।
उनके पैरों में लकड़ी के खड़ाऊँ थे, जिनसे चलते वक्त खासी आवाज होती थी।
मंदिर के गर्भगृह से पहले एक चौकोर सभागार था, जिसके चारों और खंभों से टिकी
एक बालकनी थी, जिसमें महिलाएं बैठती थीं। बालकनी के नीचे की दीवार पर गीता के
श्लोक और रामचरितमानास की चौपाइयां लिखी हुई थीं। बालकनी के नीचे दाहिने
किनारे पर कुछ भजनीक बैठे थे। ये भजनीक वहां बारी-बारी से सारे दिन और सारी
रात कीर्तन करते थे।
इस सभागार में बीचोबीच फर्श पर एक बहुत उजली चादर बिछी थी। चादर पर पांच
कुशासन भी डाले गए थे! कुश के वे आसन शायद अभी खरीदे गए थे।
अंदर आचार्य बृहस्पति का स्वागत करने के लिए कई लोग खड़े थे-उम्दा रेशम का
कुर्ता और धोती पहने दीनानाथ रस्तोगी, सफारी सूट में प्रोफेसर डॉ. बिष्णु
प्रताप सिंह, बहुत सफेद धोती-कुर्ते में प्रो. इंद्रध्वज भदौरिया, कमर से
नीचे सिर्फ धोती पहने और कंधों पर रामनामी ओढ़े हरिप्रकाश याज्ञिक और दूसरे
कई लोग। सभी ने आचार्य के पैर छुए और दीनानाथ रस्तोगी ने फुर्ती से गुलाब के
फूलों की एक महंगी माला उठा ली।
आचार्य का चेहरा पहले से ही खासा तना हुआ था। उस पर इस तरह का निर्वेद था,
जैसे वह गुलाबी पत्थर का बना हुआ कोई मुखौटा हो। लगता था, जैसे वे पलक भी
नहीं झपकाते थे। रस्तोगी के हाथ में माला देखकर वे ठिठके। चेहरे पर थोड़ा और
तनाव आ गया। उन्होंने याज्ञिक की तरफ किसी पुतले की तरह चेहरा घुमाया।
याज्ञिक आगे आ गए-“रस्तोगी जी यह क्या कर रहे हैं? पूछ तो लिया होता। आचार्य
जी इस सबका स्पर्श नहीं करते। इसे केवल चरणों के पास रख दीजिए।"
ठीक इसी वक्त सेलुलर फोन की आवाज आई। अब लोगों ने ध्यान दिया, आचार्य
बृहस्पति के हाथ में एक बहुत नफीस सुनहली डिब्बी जैसा सेल फोन था। आचार्य फोन
पर बोले, "बृहस्पति।"
उन्होंने थोड़ी देर चुपचाप फोन पर सुना, फिर बेहद मशीनी आवाज में संस्कृत में
बोले, "देखो राय, उस मंत्री से कहो, परसों सुबह बात करे।"
याज्ञिक खिसियाहट-भरी चापलूसी करते हुए संस्कृत में ही बोले, “आचार्य जी को
लोग निरंतर परेशान करते रहते हैं।"
आचार्य ने कोई उत्तर नहीं दिया। वे खुश भी नहीं हुए। खड़ाऊं उतारकर वे सफेद
चादर पर आ गए। किसी ने लपककर माला वहां से हटा दी। आचार्य बैठ गए। अब तक बाहर
काफी लोग इकट्ठा हो गए थे। मंदिर की सीढ़ियों पर उनमें से कोई नहीं चढ़ा।
आचार्य के इशारे पर अंदर के बाकी चार लोग भी बीच की जगह खाली छोड़कर बैठ गए।
याज्ञिक ने संस्कृत में पूछा, "हमारे लिए आज्ञा करें। आप दिव्य के इस आयोजन
के न्यायाधीश हैं।"
आचार्य ने पूछा, “धर्म और अधर्म की मूर्तियां तैयार हैं?"
“जी आचार्य!" याज्ञिक ने मंदिर की मर्तियों के करीब गोबर के दो पिंडों पर
धर्म की चांदी की और अधर्म की रांगे की रखी हुई छोटी-छोटी मूर्तियों की तरफ
इशारा किया। गोबर के पिंड नए खरीदे गए मिट्टी के कटोरों में रखे थे।
आचार्य बोले, “पंचगव्य छिड़ककर धर्म की मूर्ति पर सफेद और अधर्म की मूर्ति पर
काले फूल चढ़ाएं।"
फिर जैसे उन्हें कुछ याद आ गया। उन्होंने कहा, "आप कह रहे थे, कुछ प्राश्निक
भी हैं?"
याज्ञिक ने कहा, “जी, वे पधार गए हैं।"
"लेख्यं यत्र न विद्येत न भुक्तिन च साक्षिणः। न च दिव्यावतारोस्ति प्रमाणं
तत्र पार्थिवः। निश्चेतुं येन शक्याः स्युर्वादाः संदिग्ध रूपिणो तेषां नृष
प्रमाणं स्यात्स सर्वस्य प्रभुर्यतः।" आचार्य ने ऊँचे स्वर में कहा। उनका
उच्चारण बहुत साफ-सुथरा था।
इसी बीच एक सेवक कागज का एक टुकड़ा लेकर आया। वह पची उसने याज्ञिक को दे दी।
याज्ञिक ने पढ़ा और एक क्षण बालकनी की तरफ देखा, फिर थोड़ा-सा झुककर आचार्य
से संस्कृत में ही बोले, "ऊपर कुछ सम्माननीय प्राश्निक बैठे हैं। वे हिंदी के
महत्त्वपूर्ण लेखक हैं। उनमें से एक अत्यंत विख्यात कथाकार
हैं। राजनीति और संस्कृति पर बहुत लिखा है। एक वयोवृद्ध हिंदी आलोचक और
सामाजिक विचारक हैं। आजकल ऋग्वेद और नाट्यवेद पर काम कर रहे हैं। तीसरे
संस्कृत के बड़े आचार्य हैं। वे चाहते थे कि..."
आचार्य का चेहरा थोड़ा और सख्त हुआ। उन्होंने कठोर स्वर में पूछा, "तीनों के
वर्ण?"
इस सवाल पर याज्ञिक के चेहरे पर थोड़ी घबराहट आ गई। उन्होंने हिचकिचाते हुए
उन तीनों की जातियों का विवरण दिया तो आचार्य का गुलाबी चेहरा सुर्ख हो गया।
संस्कृत में दहाड़कर बोले, "शूद्र यहां? कायस्थ शूद्र होता है, आप जानते
नहीं।"
बालकनी में बैठे तीनों में से संस्कृताचार्य तुरंत सब कुछ समझ गए। उठकर वहीं
से खुद भी संस्कृत में बोले, “आचार्य, कृपया मेरा अनुरोध भी सुन लें। भारतीय
न्यायालयों में यह बहस जरूर हुई थी, पर अंततः कायस्थ को शूद्र नहीं माना गया।
स्मृतिवाचक व्यवहार में उद्धृत धर्माचार्य बृहस्पति के अनुसार कायस्थ द्विज
होते हैं।" यह कहकर उन्होंने अपना परिचय भी दिया।
आचार्य बृहस्पति इतनी बहस के आदी नहीं थे। उन्होंने ऊंची आवाज में कहा, "तब
आप यह भी जानते होंगे कि याज्ञवल्क्य ने राजा को उद्बोधित किया है कि वह
चोरों, दुश्चरित्रों, अत्याचारियों और कायस्थों से दूर रहे। उशना और सुमंतु
की बातों का आपके पास क्या उत्तर है?"
याज्ञिक समझ गए, बात बिगड़ेगी ही, बनेगी नहीं। वे बहुत आजिजी से बोले,
"भगवन्, इसे मेरा अपना आपद्धर्म मानकर इस समय शांत हो जाएं। जिन पर आपत्ति
है, वे इस घटना पर कुछ लिखेंगे तो धर्म का कल्याण होगा। साहित्य जगत् में
उनकी बड़ी ख्याति है।"
पूरी तरह तो नहीं, संस्कृत में होने वाली उस बहस का कुछ हिस्सा वयोवृद्ध
ऋग्वेदाध्यायी महोदय को भी समझ में आया। उन्हें इतना तो लग ही गया कि उनके
साथ आए एक वरिष्ठ कथाकार और चिंतक की जाति को लेकर बहस हुई है। सामने की
रेलिंग पकड़कर उन्होंने अपना भारी-भरकम, लेकिन काफी बूढ़ा हो चुका शरीर खड़ा
किया। वे कभी खासे ही कसरती रहे होंगे। अभी वे कुछ कहना ही चाहते थे कि उनके
संस्कृताचार्य साथी ने उनका हाथ दबाया।
नीचे कुछ वाक्य और बोले गए और लगा, आचार्य बृहस्पति अब अपनी असहमति पहले से
ज्यादा तीखेपन से प्रकट करेंगे, पर उन्होंने एक बार बालकनी की ओर हल्के से
देखा और दो क्षण के लिए आंखें बंद करके बैठ गए। वहां एकदम सन्नाटा हो गया।
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