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मुद्राराक्षस संकलित कहानियां

मुद्राराक्षस

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :203
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7243
आईएसबीएन :978-81-237-5335

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कथाकार द्वारा चुनी गई सोलह कहानियों का संकलन...


"हूं। तभी। तुम्हें मालूम नहीं है कि यहां कर्य लगा है?"

“जी, कर्फ्यू? मगर मैं तो अपने घर ही जा रहा हूं बंदापरवर!"

"कहा न, कयूं लगा है। जाओगे कैसे? पास है कप! का?"

"जी, पास तो नहीं है, मगर मैं तो..."

"मियां जी, मेरी सलाह मानो, यहीं से वापस हो लो। मुसीबत में पड़ जाओगे। हम तो भलमनसाहत से पेश आ रहे हैं, आगे डंडे से ही बात होगी।"
"जी।" हमदम साहब परेशान हो आए, “अगर मैं यहां-मेरा मतलब है, कप!

पास तो बनता होगा? देखिए, मैं-" हमदम साहब ने चाहा कि वे बता दें कि वे एक मशहूर कौमी शायर हैं। यहां तक कि उन्होंने खुद गवर्नर साहब बहादुर के रूबरू बैठकर अपनी नज्में सुनाई हैं, पर वे रुक गए।

सिपाही शायद उतना बुरा नहीं था। समझाता हुआ बोला, “मुल्ला जी, पहले बनता था, अब यहां नहीं बनता। अब मेरठ से ही बनवाना पड़ेगा। डी. एम. के यहां चले जाओ, बन जाएगा। तुम तो अस्पताल में थे, इसलिए तुम्हारा केस मजबूत है।"

हमदम साहब ने सिपाहियों को एक बार फिर देखा। उन्हें लगा, जो कहा गया है, उसे मान लेने के अलावा रास्ता नहीं है।

हालात मेरठ में भी बेहतर नहीं थे। बल्कि मेरठ-गाजियाबाद सड़क के बस अड़े से बहत पहले ही उन्हें रोक दिया गया, "कौन है? कहां जा रहा है? पास है?" उन्हें शहर की सीमा से बाहर ही इस तरह घेर लिया गया, जैसे वे कोई भागे हुए मुजरिम हों।

बेहद हताशा और अपमान के साथ अपनी पसलियों पर चढ़ा पलस्तर कई बार प्रदर्शित करने के बाद सिर्फ इतना हुआ कि उन सिपाहियों ने उन्हें वापस जाने की इजाजत दे दी। वापस? लेकिन कहां? वतन और कौमी फरायज के बाद पहली बार उन्हें अपने घर की याद आई। इस साल चूने में पीली मिट्टी मिलाकर पुताई कराने के बाद दरवाजों पर तेल वाला नीला रंग उन्होंने खुद लगाया था। दरवाजे अच्छे चमकने लगे थे। उनकी चिड़चिड़ी बीवी उनसे चाहे जैसे पेश आती हो, पड़ोस की हर औरते पर उनकी शायरी और गवर्नर साहब से उनके ताल्लुकात का रोब गालिब था।

पिछले बरस छब्बीस जनवरी के मौके पर उनकी बहत कोशिशों के बाद गवर्नर की कोठी पर होने वाले मुशायरे का निमंत्रण सूचना विभाग ने दे दिया था। मुशायरे वाले दिन शाम कोई चार बजे गवर्नर के यहां होने वाली चाय-पार्टी में शिरकत का मौका भी उन्हें मिला था। इस चाय-पार्टी में शामिल होने का गौरव वे कभी नहीं भल सकते। कितने बड़े-बड़े लोग थे वहाँ, पुलिस के अफसर तमगे चमकाते हुए, बडे-बडे हाकिम, अदब से खड़े नौकर, बेहतरीन मेजपोशों पर सजी हई उम्दा मिठाइयां, पैरों के नीचे मोटे कालीन जैसी घास।

हमदम साहब के बच्चों ने बहुत देर जिरह करके उनसे हर मिठाई की शक्ल और जायके का परिचय लिया था। इसके बाद बच्चे मिट्टी और पत्थर के टुकड़ों की मिठाई बना लेते और ईंटों पर कोई कागज बिछाकर उन्हें मेजें मान लेते। इस तरह गवर्नर के चाय-पान का खेल वे लोग बहुत दिन तक खेलते रहे थे।

गोश्त बेचने वाला मुन्ना उन्हें इस दावत के बाद से बहुत महत्त्वपूर्ण और सम्मानित व्यक्ति मानने लग गया था। मक्खियों से भरे चबूतरे पर बैठाकर वह उन्हें चाय पीने को मजबूर कर देता था। जिस बनिए से वे राशन लाते थे, उसे भी बहाने-बहाने उन्होंने सब कुछ बता दिया था। वह राशन की दुकान का लाइसेंस चाहता था। उसने दो बार उन्हें रोककर ठंडे शर्वत की बोतल पिलाई थी।

इस वक्त इससे ज्यादा कुछ उन्हें याद नहीं आया। लगा, इस बीच घर से बाहर एक जमाना गुजर चुका है और याददाश्त में काफी धुंधलापन आ गया है। न चाहते हुए भी उन्होंने एक बड़ा फैसला कर लिया। वे गवर्नर साहब से मिलेंगे। हालांकि नंगे बदन पर चढ़े पलस्तर के ऊपर लटकाया कुर्ता बहुत बढंगा लग रहा था, पर ऐसे ही सही। कप्तान ने यह एक मेहरबानी जरूर कर दी थी कि चलते वक्त उन्हें अपना एक कुर्ता और पायजामा भी दे दिया था। पता नहीं सरकारी खजाने से या अपनी तरफ से, उसने जो सौ रुपए उन्हें दिए थे, उसमें से अभी बहुत थोड़े ही खर्च हुए थे। अपनी इस वक्त की समस्या के लिए गवर्नर साहब से मुलाकात कुछ ऐसी थी, जैसे चींटी मारने के लिए तोप का इस्तेमाल किया जाए, लेकिन इसके अलावा उन्हें और कोई रास्ता दिखाई नहीं दिया।

इस बार गवर्नर साहब की कोठी उन्हें उतनी सुहानी नहीं लगी। बड़े फाटक के संतरी ने उन पर ध्यान भी नहीं दिया, पर आगे जहां एक छोटा सरोवर बना था, उससे कुछ पहले ही दो आदमियों ने उन्हें टोका।

गनीमत ही है कि उन्होंने थोड़ी शिष्टता बरती और कोठी के स्वागत कक्ष की तरफ इशारा कर दिया। स्वागत कक्ष में चार-पांच लोग बहुत जोश के साथ किसी बात पर बहस कर रहे थे। हमदम साहब बहुत अदब से आदाब करके एक किनारे खड़े हो गए।

दरअसल मामला किसी की छुट्टी का था, जिसकी फाइल गुम थी। जब वे लोग बहस से करीब-करीब थक गए, तब उनमें से एक ने हमदम साहब की तरफ ध्यान दिया, “कहिए?"

“आदाब हुजूर, मुझे हमदम मलियानवी कहते हैं। पिछले बरस छब्बीस जनवरी के मुशायरे में हुजूर ने इस नाचीज को याद फर्माया था।"

“जी। अच्छा। बैठिए।" उसने कहा।

हमदम साहब थोड़ा अटपटे ढंग से कुर्सी में धंसे और पसलियों में उभर आई पीड़ा की वजह से थोड़ी-सी बिगड़ गई मुस्कराहट के साथ बोले, “जनाब, अस्पताल से आ रहा हूं। एक अजब-सा हादसा हो गया था।"

अस्पताल के नाम पर वह आदमी थोड़ा संकुचित हो गया, "क्या हो गया था?"

"क्या बताऊं हुजूर, बदकिस्मती मेरी कहिए। जनाब, इसी सिलसिले में हजरत आरिफ साहब से नियाज हासिल करना चाहता था।"

"ओह!" वह आदमी समझा, हमदम साहब इलाज के लिए मदद मांगने आए हैं। उसने सहानुभूति दिखाते हुए कहा, “गवर्नर साहब तो इस वक्त कहीं जा रहे हैं। आप स्वास्थ्य मंत्री जी से मिल लीजिए।"

“जी?"

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