कहानी संग्रह >> मुद्राराक्षस संकलित कहानियां मुद्राराक्षस संकलित कहानियांमुद्राराक्षस
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कथाकार द्वारा चुनी गई सोलह कहानियों का संकलन...
एहसास
दुनिया का गहरे से गहरा अंधेरा भी कभी-कभी उन आंखों के सामने झीना पड़ जाता
है, जो उस वक्त कुछ भी देखने से इनकार करना चाहती हों। हमदम साहव अंधेरे के
इस झीनेपन से डर रहे थे। अब उन्हें मृत्यु का नहीं, रोशनी का भय था। रात अभी
मुश्किल से आधी बीती थी। नहर के किनारे उगे पतावर की लंबी धनुषाकार पत्तियों
का एक बड़ा गुच्छा उनकी आंखों और आकाश के बीच बहुत साफ उभर आया था, जैसे काली
रोशनी वाला कोई अनार छूटकर ठहर गया हो। हवा एकदम ठहरी हुई थी और हमदम साहब की
निगाहें सिर्फ दो चीजें देख पा रही थीं, बारीक लंबी तलवारों जैसी पतावर की
काली पत्तियाँ और उनके पीछे किसी खाली पड़े सिनेमाघर के ठंडे पर्दे की तरह
खिंचा हुआ आसमान। अब उनका ध्यान गया, नीचे पानी है, टखने से ऊपर तक, उनके
पाँव भिगोता हुआ। बहुत देर से ठहरी हुई या घुटी हुई साँस सहसा उनके फेफड़ों
ने इस तरह खींची जैसे पानी में लंबी डुबकी लगाकर आए हों और इसी सांस के साथ
एक मितली उठी। इस बार पसलियों के दर्द से नहीं, न खौफ से। वे सहम गए। मितली
एक दुर्गंध से उठी, खून की दुर्गंध, अपने खून की या दूसरों के खून की।
इस बीच शायद वे बेहोश हो गए थे, क्योंकि अपनी पसलियों से लेकर कंधे और कान तक
आग से जलाए जाने की जैसी तकलीफ वे फिर महसूस करने लगे। यह गनीमत थी कि अब
वहां सिर्फ वह असह्य जलन ही थी, वरना जिस वक्त उन्हें गोली लगी थी उस वक्त
उन्हें ऐसा लगा, जैसे किसी ने बहुत वजनी कुल्हाड़ी से उनका आधा हिस्सा चीर
दिया हो और चीरने के बाद उनकी पसलियाँ मरोड़ रहा हो। तभी वे चीखे थे।
बेसाख्ता। बहुत दर्दभरी आवाज में। अब उन्होंने गौर किया, क्या वे अकेले ही
चीखे थे? वहां तो बहुत लोग थे। अंधेरे में सही तादाद वे नहीं जान पाए थे,
लेकिन सौ एक लोग तो रहे ही होंगे।
मौत से पहले आदमी के शरीर में शायद बहुत कुछ बदल जाता है, जैसे उसकी आवाज। वह
अपनी बोली बिल्कुल भूल जाता है। कोई शब्द उसे याद नहीं रहता। कान सुनना बंद
कर देते हैं। दहशत से थमकर खून इस कदर जोर से चीखता है कि कान बहरे हो जाते
हैं। शायद यही कुछ हुआ हो। हमदम साहब के अलावा और लोग भी चीखे होंगे, पर उनकी
आवाजें सुनाई नहीं दीं। याद नहीं पड़ता कि गोली की आवाज भी उन्होंने साफ-साफ
सुनी हो।
उन्होंने हिलना चाहा। हिले नहीं। हिल नहीं पाए। लेकिन इतना सोचने-भर से
उन्हें लगा, उनकी पसलियाँ कोई फिर मरोड़ रहा है, मरोड़कर जख्म से खिलवाड़ कर
रहा है। एक दबी हुई कराह उनके गले से निकली, लेकिन वे फौरन ही खामोश हो गए।
थोड़े पल के खौफनाक सन्नाटे के बाद एक चीख और उभरी, जैसे किसी का गला दबाया
जा रहा हो। हमदम साहब इस बार और ज्यादा डर गए। उन्होंने ही कराहकर गलती की थी
और अब अगर कोई और भी वहां जिंदा है तो इस बुरी तरह चीखकर उसने तो कयामत ही
बुला ली है। वे लौटेंगे और खोज-खोजकर गोली मारेंगे। हमदम साहब सांस रोककर
दहशत से आंखें मूंदे देर तक इंतजार करते रहे, लेकिन गनीमत है कि दुबारा वहां
कोई नहीं आया। खौफ फिर भी कम नहीं हुआ। वहां अंधेरा भी तो काफी नहीं था। अगर
वे दुबारा आएं और थोड़ा-सा गौर करें तो हमदम या उस चीखने वाले दूसरे आदमी को
खोज सकते हैं। मगर इससे ज्यादा भयावह स्थिति तो चार-पाँच घंटे बाद आने वाली
थी। पर क्या तब तक जिंदा रह पाना मुमकिन होगा? उन्होंने मायूस होकर गर्दन
नीचे झुकाई और तीखी धार वाले पतावर की पत्तियों पर माथा टिका लिया। उनके
दोनों बाजू सलीब पर लटकाए आदमी की तरह पतावर पर लंबे होकर उलझे हुए थे।
पातवर पर माथा टिकाए हुए उन पर अब एक गहरी मायूसी छाने लगी। या शायद नींद या
नीम बेहोशी। खून की दुर्गंध अब इतनी तीखी और असह्य हो गई थी कि उन्हें लग रहा
था, जैसे वे लहू के दरिया के किनारे डाल दिए गए हों। अपनी लाचारी पर उन्हें
एकाएक रोना आ गया, पर वे रो नहीं पाए। खुश्क हो गए गले में लकड़ी की
फाँसें-सी चुभी और आंखों में जलन होने लगी। न हिचकी आई न आंसू।
"खुदाया, यह क्या हुआ? आखिर मैंने किसी का क्या बिगाड़ा था?" होश में आने के
बाद उनके कलेजे में पहली बार यह इबारत उभरी कि तभी वह आदमी फिर कराहा, ठीक
उसी तरह, जैसे उसका गला दबाया जा रहा हो। खून की तीखी बदबू के बीच यह
आवाज-हमदम साहब को लगा, जैसे उनके कानों के पास अपने बदबूदार दांत चमकाती हुई
मौत गुर्रा रही हो। अगर उनकी पसलियों की तकलीफ फिर न उभर आई होती तो जरूर वे
मौत के उस दुर्गंधयुक्त काल्पनिक जबड़े से बचने के लिए पतावर से नीचे फिसल
जाते। उन्होंने अपने दांत सख्ती से भींचकर माथा पतावर पर और ज्यादा गड़ा
लिया।
मौत के दांतों की वह दुर्गंध दारोगा श्यामलाल को भी महसूस हुई। दो सिपाहियों
के साथ वह साइकिल पर नहर के किनारे-किनारे चला आ रहा था। सिपाही आपस में ऊंची
आवाज में बातें कर रहे थे। दारोगा ने दुवारा लंबी सांस खींची। इस बार वह
दुर्गंध महसूस नहीं हुई। उसे लगा, यह वहम था; पर तभी एक सिपाही ने बातों का
सिलसिला तोड़ दिया, “अवे, ये बदबू काहे की है बे!"
इसी वक्त दारोगा ने वह गंध फिर महसूस की, इस बार पहले से ज्यादा तेज।
"मरा जानवर कोई नहर में धकेल गया है।" मगर यह कहते-कहते दूसरा सिपाही भी सहम
गया। तीनों को लगा, यह दुर्गंध मरे जानवर की नहीं, ताजे खून की है। इसी बीच
दूसरे आदमी के कराहने की आवाज आई। दारोगा को रात के उस सन्नाटे में झुरझुरी
हो आई। तीनों ही सहसा साइकिलें रोककर उतर पड़े।
दारोगा ने कड़कती आवाज लगाई, “कौन है बे वहां? कौन है बे?"
जवाब में पहले से भी ज्यादा सहमा हुआ सन्नाटा छा गया।
"अबे कौन है, बोलता क्यों नहीं?" एक सिपाही ने टॉर्च जला ली।
“साहव, आवाज इधर नहर के किनारे से आती लगी थी।" दूसरा सिपाही बोला।
अब उन्होंने महसूस किया, बदबू बहुत तेज है और उनके पैरों के करीब ही कहीं है।
उन्हें यह भी लगा, जमीन आसपास खासी भीगी है। तभी सिपाही लगभग चीख पड़ा,
“साहब, लाश...लाशें..."
दारोगा ने भी अपनी टॉर्च की रोशनी नहर के ढाल पर घमाई। उस बेहद तीखी रोशनी
में नहर के पानी तक बहे खून में लिथड़ी हुई लाशें एक-दूसरे से उलझी हुई पड़ी
थीं-दस, बीस, पचीस, पचास, सौ-इतनी लाशें और इतना खून उसने जिंदगी में कभी
नहीं देखा था। वह झटके से पलटा। लगा, वह चीखेगा, पर बगैर कोई आवाज निकाले वह
ढाल से कूदकर ऊपर सड़क पर आ गया और तेजी से शहर की तरफ पैदल दौड़ पड़ा। वह इस
तरह बेतहाशा दौड़ रहा था, जैसे लाशों से हटकर मौत अपने खौफनाक पंजे उसकी तरफ
उठाए हुए पीछे झपटती आ रही हो। नहर के आर-पार बने पुल से गुजरने वाली चौड़ी
सड़क पर आकर दौड़ने में उसे कुछ ज्यादा आसानी हुई। गोल चक्कर वाले बड़े
चौराहे से सीधे आगे बढ़कर उसकी चौकी थी। पर वह उधर नहीं गया। दाहिने मुड़कर
दुबारा बाएँ एक पतली सड़क पर उतरकर वह उसी तरह दौड़ता रहा।
इसी सड़क के छोर पर पुलिस कप्तान का बड़ा-सा मकान था। मकान के फाटक के बाहर
एक छोटी गुमटी थी पहरेदारों के लिए।
और कोई दिन होता तो दारोगा गुमटी पर खड़े संतरी से जरूर बात करता। उसे खुश
करने के बाद वह कप्तान साहब के बारे में पूछता। लेकिन आज सहसा वहां अंधेरे को
फाड़ता हुआ दारोगा प्रकट हुआ और छलांग लगाकर फाटक के अंदर हो गया।
बौखलाया हुआ संतरी चीखा, “अरे ए-"
कप्तान उस वक्त गाजियाबाद कला मंडल के एक नाटक समारोह से लौटा था। अभी उसने
जीप से एक पैर बाहर लटकाया था कि वह अधविक्षिप्त दारोगा वहां पहुंच गया। जीप
का सिपाही उछलकर दारोगा के पीछे आ खड़ा हुआ।
दारोगा कुछ बोला नहीं। उसने सिर्फ इस तरह एक यांत्रिक अभिवादन किया, जैसे
हथेली के पीछे से माथे का पसीना पोंछ रहा हो। हाथ सीधे नीचे नहीं आया। लगा,
उसके जोड़ उखड़ गए हैं। वह झूल-सा गया। कप्तान ने उसे निगाह गड़ाकर घूरा,
“क्या है?"
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