कहानी संग्रह >> मुद्राराक्षस संकलित कहानियां मुद्राराक्षस संकलित कहानियांमुद्राराक्षस
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कथाकार द्वारा चुनी गई सोलह कहानियों का संकलन...
बहुत कोशिश के बाद दारोगा के गले से दो बार अस्पष्ट-सा एक शब्द निकला,
"श्रीमान्...!" यह संबोधन इतना टूटा-फूटा था, जैसे उसे बहुत देर से वह अपनी
पसीजी हथेली में मुट्ठी बांधकर दबाए रहा हो।
कप्तान बहुत जल्दी उस घबराहट को समझ गया। चौकी पर कोई हवालाती उसके हाथों मर
गया है। थोड़ा सख्त लेकिन आश्वासन देती आवाज में उसने कहा, "ठीक से बोलो, बात
क्या है?"
वह एक शब्द 'श्रीमान्' भी इस बार साफ नहीं निकला। वह कुछ इस तरह हिलने लगा,
जैसे उस पर कोई दौरा पड़ने वाला हो।
"हुआ क्या है, आराम से बताओ, तमाशा मत करो।" कप्तान ने कहा, “पानी पीओगे?
पानी लाओ।"
सिपाही अंदर की तरफ दौड़ गया, लेकिन संतरी उससे पहले ही एक पीतल का गिलास भर
लाया।
दारोगा को संभलने में ज्यादा ही वक्त लगा। तब तक वह दोनों सिपाही भी दारोगा
की साइकिल लिए हुए फाटक पर आ खड़े हुए।
दारोगा ने लाशों का जो ब्योरा दिया, उस पर कप्तान सहसा विश्वास नहीं कर पाया।
उसने दारोगा को एक बार फिर गौर से देखा। दारोगा ने शराब नहीं पी हुई थी। भंग
पीकर भी वह हालत नहीं हो सकती थी।
देर बाद दारोगा ने जो कुछ बताया, उस पर कप्तान को विश्वास नहीं हुआ, "इतनी
लाशें!"
“हाँ श्रीमान्, सैकड़ों।"
"कहां? कहां हैं लाशें?"
"बॉडर पर श्रीमान्! मेरठ-गाजियाबाद बॉर्डर पर नहर के अंदर।"
"नहर के अंदर? गाजियाबाद में?"
"हाँ सर!"
कप्तान झपटकर दफ्तर वाले कमरे में आया। उसके वायरलेस से शॉय-शॉय की कर्कश
ध्वनि के साथ लगातार कहीं कोई सूचना भेजी जा रही थी, बहुत ऊंची आवाज में।
कप्तान ने नियन्त्रण कक्ष को लाशों की सूचना दी और लड़खड़ाते दारोगा को साथ
लेकर नहर के किनारे चल दिया।
घबराहट में दारोगा उस जगह की शिनाख्त करना भूल गया था। अंदाजे से उसने जीप
जहां रुकवाई, वहां नहर के किनारे कुछ नहीं था। बहुत दूर तक फैले अंधेरे में
झींगुरों की तीखी आवाज के अलावा और सब कुछ शांत था। नहर में पानी बहुत थोड़ा
और चुपचाप बह रहा था।
क्या उसने ख्वाब देखा था? वह भ्रम था? दारोगा बौखला गया। उसकी आवाज एक बार
फिर गायब हो गई। करीब था कि इस दूसरे धक्के से वह बेहोश ही हो जाता कि एक
कराह कहीं दूर से आती हुई फिर सुनाई दी। इस बार जैसे कोई उल्टी कर रहा हो।
उल्टी हमदम साहब ही कर रहे थे। बहुत देर से घुटी हुई मितली उनके सूखे कंठ को
चरचराहट के साथ फाड़कर अनायास बाहर आ गई थी। भयानक दुर्गंध और अपनी दुर्दशा
की बेबसी के बाद इस घिनौनी प्रतिक्रिया के लिए वे कतई तैयार नहीं थे, पर इसे
भी उन्होंने स्वीकार कर लिया। मरोड़ के साथ पसलियों से लेकर कंधों तक बढ़ गए
दर्द से लड़ते हुए उन्होंने दुबारा स्वेच्छा से वमन करना चाहा, पर इस बार
बहुत डरावनी गों-गों और बेबसी-भरी रिरियाहट के अलावा गले से कुछ भी बाहर न
आया।
इसके बाद जिसका उन्हें डर था, वही हुआ। बहुत-से भारी कदम दौड़ते हुए करीब आए।
उनके साथ ही तुरंत एक गड़ी भी आ गई। कई टार्गों और जीप की बत्तियों से नहर के
उस अंधेरे किनारे पर तेज और चकाचौंध दिलाने वाली रोशनी का जैसे एक विस्फोट-सा
हुआ। पुलिस की वर्दियों की एक झलक-सी उन्हें दिखाई दी। गंदगी को भूलकर
उन्होंने दाँत भींचे और माथा दुबारा पतावर में गड़ा लिया। लेकिन वे ज्यादा
देर उस हालत में अपने को रख नहीं पाए। इस बार वे अपनी मृत्यु के समूचे आयोजन
को ठीक से देख लेना चाहते थे।
“जिंदा है।" एक आवाज आई। आवाज सुनकर सर्द पानी में और ज्यादा सर्द पड़े टखनों
में एक थरथराहट हुई। मगर आंखें उन्होंने बंद नहीं की। टॉर्च की रोशनी में
बहुत फटी हुई उन आँखों को देखकर कप्तान उस तरफ झुका, “डरो नहीं, बाहर आओ।"
उसकी इस आवाज पर भी वे हिले नहीं। पलक तक नहीं झपकाई। उन्हें और नजदीक से
देखने के लिए कप्तान ने एक पैर नहर के अंदर के ढाल पर उतारा। पैर टिका नहीं।
जैसे वहां चिकनी कीचड़ हो, इस तरह फिसल गया। कठिनाई से संभलकर जब वह खड़ा हुआ
तो उसने पाया, उसकी वर्दी, जूतों और हथेलियों पर जो लिपट गया है, वह आधा, जमा
गाढ़ा सुर्ख और कहीं-कहीं मिट्टी में मिलकर काला पड़ा खून है। और अब जीप की
रोशनी में उसने देखा कि नहर के ढाल से लेकर पानी तक बहुत-सी लाशें एक-दूसरे
में उलझी पड़ी हैं।
"यह हुआ क्या है?"
"श्रीमान, गोलियाँ। इन्हें गोलियाँ लगी हैं।" एक सिपाही ने कहा।
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