लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं औरत का कोई देश नहींतसलीमा नसरीन
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औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...
यह जो धर्मान्धता में चूर है देश, यह जो राजनीतिक नेता, एक-एक करके अपने को कट्टरवादी में परिणत कर रहे हैं और आपस में इस प्रतियोगिता में उतरे हैं कि कौन कितना धार्मिक या कट्टरवादी है, उससे देश का क्या हाल होगा, किसी ने सोचा है? चलो, मान लिया कि राजनीतिक लोगों ने, कुछ दिनों तख्तनशीन होने का सुख भोग लिया। लेकिन बदहाली आखिर किन लोगों की तरफ़ हहराकर बढ़ती आ रही है? सभी जानते हैं कि औरतों की तरफ़ ही आ रही है, धार्मिक अनुशासन के कारण औरतों को ज़िन्दगी भर भुगतना पड़ता है। राष्ट्र, समाज, क़ानून, परिवार में धर्म की विधि-व्यवस्था को दावत देने का मतलब है, नारी-निर्यातन को सदा आमन्त्रित करना, औरत-मर्द के बीच भेद-भाव को हवा देना, लड़कियों के बाल-विवाह, मर्दो के बहु-विवाह, तथाकथित व्यभिचार के नाम पर लड़कियों औरतों पर पत्थर फेंक-फेंक कर मार डालने के क़ानून को न्यौता देना। बुर्का न पहनने से, शौहर का हुक्म न मानने से, पीट-पीटकर हत्या करने, तलाक़-तलाक़-तलाक़, तीन-तलाक़ की बीभत्सता को दावत देना है। औरतों के लिए कैद, बेकारी, अशिक्षा, अस्वास्थ्य, दासत्व और दुर्भोग को आमन्त्रित करना है।
औरत को डसने के लिए कट्टरवाद मानो फन उठाये फुफकारता रहता है। ज़हरीले साँपों से छायी हुई, मेरी जन्मभूमि-बांग्लादेश, औरतों के लिए आशंकित मैं, बिलकुल वाक-रुद्ध हूँ। कहते हैं जब पीठ दीवार से टकराने लगेगी, तब कट्टरवाद-विरोधी शक्ति विरोध करेगी। लेकिन, पुरुष...ये मर्द क्या विरोध करेंगे? मर्द क्या सच ही इसके विरुद्ध आवाज़ उठायेंगे? धर्म की विविध सुविधाएँ तो आरामपूर्वक मर्द जी रहे हैं। औरत की गर्दन पर सवार हो कर, औरत को कदमों तले रौंदकर, दलबद्ध तरीके से कुचलकर, जितने भी तरीके से ऐशो-आराम किया जा सकता है, मर्द नामक प्रभु वह सब करता है। धर्म या कट्टरवाद की वजह से मर्द को कभी भी कोई दुर्योग नहीं झेलना पड़ता, न पड़ेगा। झेलने को लाचार तो सिर्फ औरत है। दीवाल से अगर किसी की पीठ टकराती है, तो वह औरत की ही पीठ होती है। हालाँकि उसकी पीठ तो वर्षों-वर्षों पहले ही दीवार से टकरा जानी चाहिए थी, क्यों नहीं टकरायी, अब भी क्यों नहीं टकरा रही है, यह एक रहस्य है या यह भी हो सकता है कि पीठ टकरायी है, लेकिन औरतों को इस क़दर अनुभूतिहीन रखा गया है कि आज, उन लोगों को कहीं कोई चोट लगे भी, तो वे लोग महसूस नहीं कर पातीं। औरतों का दिमाग़ इतना भोथरा बना दिया गया है कि मर्द, चाहे कट्टरवादी हो या भोगवादी, सबके सब एक हैं। सभी औरतों को ही भुगतने को लाचार करते हैं। सभी औरतों को लतियाते हैं, तमाचे-मुक्के बरसाते हैं। सभी औरतों का हक़ छीनकर नाली में फेंक देते हैं। बेहद ठंडे दिमाग़ से औरतों की आज़ादी से सामूहिक बलात्कार करते हैं, उन्हें मार डालते हैं। कट्टरवादी और भोगवादी, दोनों ही किस्म के मर्द ही ऐसी हरकतें करते थे, करते हैं, करते रहेंगे। उन लोगों ने अतीत में यह सब किया, अभी भी कर रहे हैं और भविष्य में भी करते रहेंगे। ये लोग तब तक ऐसा करते रहेंगे, जब तक इन लोगों को पैरों तले रौंदकर उन लोगों को ख़त्म न कर दिया जाये। जब तक उन लोगों के दंभ को पीसकर बुकनी न बना दिया जाये। उनके पौरुष को चीरकर, धज्जी-धज्जी करके हिकारत और अवज्ञा से उछाल न फेंका जाये ताकि दुर्गन्ध से निजात मिले।
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- इतनी-सी बात मेरी !
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- मेरे प्रेमी
- अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
- असभ्यता
- मंगल कामना
- लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
- महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
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- सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
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- तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
- औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
- औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
- पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
- समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
- मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
- सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
- ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
- रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
- औरत = शरीर
- भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
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- जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
- औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
- औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
- दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
- वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
- काश, इसके पीछे राजनीति न होती
- आत्मघाती नारी
- पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
- इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
- नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
- लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
- शांखा-सिन्दूर कथा
- धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं