लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं औरत का कोई देश नहींतसलीमा नसरीन
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औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...
अवामी लीग नामक दल को लोग, प्रगतिशील और असाम्प्रदायिक पार्टी के रूप में पहचानते थे। लेकिन अब अवामी लीग और कट्टरवादी दल में क्या कोई फ़र्क रह गया है? जमात-ए-इस्लामी, इस्लामी एक्यजोट, बी.एन.पी., अवामी लीग-इन तमाम पार्टियों में, नीति और आदर्शगत नज़रिये से, सच कहें तो अब, सच्चे अर्थों में कहीं कोई फर्क नहीं है। एक ही पल में जाने क्या-से-क्या हो जाये। और देश का भविष्य? नहीं, इस देश के बारे में किसी सम्भावना का सपना देखने में मैं नितान्त असमर्थ हूँ। देश उग्रपंथी जंगी मुसलमानों के अड्डे में परिणत हो गया है। बाकी जो लोग बच रहे हैं, जो लोग यह कहते हैं कि वे लोग उग्रपंथी नहीं हैं, वे लोग कट्टरवाद के विरोधी हैं। वे लोग भी चोरी-छिपे कट्टरवाद की जड़ें कस कर दबोचे बैठे हैं। धर्म ही कट्टरवाद की जड़ है-बहुत से लोग ज़ोर-शोर से यह बात कबूल करना चाहेंगे लेकिन वे लोग धर्म में विश्वास करते हैं, इसीलिए आज धर्मनिरपेक्ष इन्सान भी कट्टरवाद के ख़िलाफ़ उतनी सख्ती से नहीं लड़ पा रहा है। कट्टरवाद आसमान से तो नहीं टपका। कट्टरवाद धर्म से उद्भूत हुआ है। अल्लाह या ईश्वर या भगवान, सभी कट्टरवादी हैं। उनके बन्दे भी कट्टरवादी हैं। धर्म के मठाधीश, प्रेरित पुरुष-सभी निस्सन्देह कट्टरवादी हैं। जो लोग धर्म की मूल नीति में विश्वास करते हैं, वे लोग तो कट्टरवादी ही हुए न। वे लोग चाहते हैं कि अनगिनत लोग भी उसी नीति में आस्था रखें। बांग्लादेश में जो लोग यह दावा करते हैं कि वे लोग कट्टरवादी नहीं हैं, वे लोग क्या धर्म की मूल नीति में विश्वास नहीं रखते? छिप-छिपकर अनेक लोग धर्म में विश्वास करते हैं। जो लोग विश्वास नहीं करते, उनमें से अधिकांश में इतनी हिम्मत नहीं है कि वे लोग डंके की चोट पर कह सकें कि धर्म में उनका विश्वास नहीं है।
बांग्लादेश तो सूफियों का देश था। बचपन में मैंने देखा है कि वे बूढ़े लोग, जिनके पास करने को कुछ भी नहीं होता था, टुक्-टुक् छड़ी टेकते हुए, पैदल-पैदल मस्जिद जाते थे, जितना तो नमाज़ पढ़ने के लिए नहीं, उससे कहीं ज़्यादा दूसरे बुड्ढों के साथ अड्डेबाजी करने के लिए! कुल मिलाकर देश के दस-बारह लोग मस्जिद में होते थे। लेकिन अब? नौजवानों की भीड़, मस्जिद में उमड़ी पड़ती है। रास्ता बन्द करके वे लोग नमाज़ पढ़ते हैं। बांग्लादेश का यह कैसा रूप नज़र आता है? धर्म में ऐसे उन्माद की सृष्टि किसने की? मैं इसका दोष राजनीति को दूंगी। इसके लिए अमीर अरब देश गुनहगार हैं, जिन लोगों ने धर्म प्रचार करते हुए दरिद्र देशों को लगभग ख़रीद ही लिया है। इस गुनाह के लिए जिम्मेदार हैं समाजतन्त्र-विरोधी, पूँजीवादी न्यू-कॉन वर्ग की तरेरती हुई आँखें! बांग्लादेश, सोना-बांग्ला नहीं रहा। किसी ज़माने में भी था क्या? हाँ, सन बावन, सन् उनसठ और सन् इकहत्तर में इसकी सम्भावना ज़रूर थी। ये असीम सम्भावनाएँ कल चन्द वर्षों में हवा हो गयीं।
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- इतनी-सी बात मेरी !
- पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
- बंगाली पुरुष
- नारी शरीर
- सुन्दरी
- मैं कान लगाये रहती हूँ
- मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
- बंगाली नारी : कल और आज
- मेरे प्रेमी
- अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
- असभ्यता
- मंगल कामना
- लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
- महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
- असम्भव तेज और दृढ़ता
- औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
- एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
- दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
- आख़िरकार हार जाना पड़ा
- औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
- सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
- लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
- तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
- औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
- औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
- पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
- समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
- मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
- सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
- ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
- रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
- औरत = शरीर
- भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
- कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
- जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
- औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
- औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
- दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
- वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
- काश, इसके पीछे राजनीति न होती
- आत्मघाती नारी
- पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
- इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
- नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
- लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
- शांखा-सिन्दूर कथा
- धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं