लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं औरत का कोई देश नहींतसलीमा नसरीन
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औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...
औरतें पुरुषों की सम्पत्ति हैं-इस बात पर पुरुष जितना विश्वास करते हैं, उतना ही पुरुष की सम्पत्ति नामक औरतें भी करती हैं या करने को लाचार होती हैं। चूँकि वे लोग लाचार होती हैं, इसलिए बिना किसी युक्ति के, बेवजह ही घर-घर विवाह नामक चीजें भी टिकी हुई हैं। अब अगर मैं किसी जायदाद की मालकिन बन जाऊँ, तो मैं भी अपनी मनचाही करूँगी और मुझे ही ये क़ानून बाबू अपनी मनचाही नहीं करने देंगे? भारत का सम्पत्ति-क़ानून क्या करता है? वह कानून क्या यह नहीं कहता कि अपनी सम्पत्ति पर मेरा एकछत्र अधिकार है?
सामाजिक सम्पर्क रहने के बावजूद औरत, पुरुष की सम्पत्ति नहीं है-यह बात कितने लोग जानते हैं? जितने लोग जानते हैं उनमें से कितने लोग मानते हैं? यह पुरुषतान्त्रिक समाज है, यह बात हमें भूलनी नहीं चाहिए। समाज का सर्वेसर्वा पुरुष है। इस समाज में दो-एक औरतें अगर 'पौरुष' दिखाती हैं, पौरुष दिखा कर पुरुष की क्षमता को छटाँक भर खर्च भी कर दिया तो इसका मतलब यह हरगिज़ नहीं है कि वाइस-वर्सा हो यानी पुरुष भी औरत की सम्पत्ति हैं।
'कानून का प्रयोग नहीं होगा।'-यह कह कर, क़ानून पर कटाक्ष करना सही नहीं है। समाज में छाए हुए घोर अँधेरे की वजह से क़ानून का सच्चा प्रयोग होते-होते वक़्त लग सकता है। शुरू-शुरू में तो इस क़ानून के उपयोग के मामले में ही हिचकिचाहट रहेगी। लोग-बाग नफ़रत करेंगे, यह सोचकर औरतें ही आगे नहीं बढ़ेगी। औरतों को डराया-धमकाया जायेगा। औरतें गुंडों से डरेंगी। लेकिन किसी-न-किसी दिन तो प्रयोग होगा ही; किसी-न-किसी दिन तो औरतें इस क़ानून के दायरे में विचार की माँग करेंगी। दीवार से पीठ लगने पर यानी निरुपाय हो कर औरतें, पुरुष की तरेरती हुई नज़रों की उपेक्षा करके, विचार की माँग करते हुए, आगे बढ़ती जायेंगी और उन साहसी औरतों को देख कर अन्यान्य औरतों का भी साहस बढ़ेगा और वे लोग इस कानून का सहारा लेंगी। शैतानी करके बदपुरुष पार पा जायेंगे-अब ऐसा नहीं होगा। उन लोगों को ख़ाक़ के सहारे पकड़ना होगा। वह ख़ाक़ है-यह क़ानून। अगर उन लोगों को क़ानून के ज़रिये न पकड़ा गया, तो हाथ से फिसल जाने की आशंका ज़्यादा है। इतने अर्से तक क़ानून बुरे पुरुषों के पक्ष में और उन लोगों के फिसल जाने के पक्ष में ही थे।
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- इतनी-सी बात मेरी !
- पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
- बंगाली पुरुष
- नारी शरीर
- सुन्दरी
- मैं कान लगाये रहती हूँ
- मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
- बंगाली नारी : कल और आज
- मेरे प्रेमी
- अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
- असभ्यता
- मंगल कामना
- लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
- महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
- असम्भव तेज और दृढ़ता
- औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
- एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
- दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
- आख़िरकार हार जाना पड़ा
- औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
- सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
- लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
- तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
- औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
- औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
- पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
- समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
- मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
- सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
- ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
- रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
- औरत = शरीर
- भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
- कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
- जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
- औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
- औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
- दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
- वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
- काश, इसके पीछे राजनीति न होती
- आत्मघाती नारी
- पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
- इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
- नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
- लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
- शांखा-सिन्दूर कथा
- धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं