लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं औरत का कोई देश नहींतसलीमा नसरीन
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औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...
इसी ‘आधुनिक' समाज में ही औरतों पर शारीरिक, मानसिक, अर्थनैतिक-सभी तरह के अत्याचार जारी हैं। इसी तथाकथित आधुनिक समाज में ही कन्या भ्रूण की हत्या की जाती है, बेटा पैदा न करने पर ताने-मलामत सहने पड़ते हैं, पति की मौत के बाद औरत को दुःसह जीवनयापन करना पड़ता है, लेकिन विधुर पुरुष को कोई ग्लानि नहीं झेलनी पड़ती! इस आधुनिक समाज में पति-पत्नी नौकरी या कारोबार के लिए बाहर जाते हैं लेकिन घर लौट कर दासी का काम औरत को ही करना पड़ता है। पति तब पति या प्रभु बन जाता है। समाज जितना-जितना आधुनिक होता जा रहा है, औरत उतनी ही 'सामग्री' होती जा रही है। उसे पुरुष के शरीर और मन को तृप्त करने के लिए मन माफिक अपनी देह तैयार करनी पड़ती है, वैसी ही साज-पोशाक पहननी पड़ती है। इसी आधुनिक समाज में ही तो बलात्कार, वधू हत्या और वधू-निर्यातन बहाल तबीयत से जारी है। इसी आधुनिक समाज में ही तो रंग काला कह कर औरत की उपेक्षा-अवज्ञा की जाती है और यही झेलते-झेलते औरतें गहरी हताशा में डूब कर, आत्महत्या कर लेती हैं।
आधुनिकता की संज्ञा अगर यही है तो साल लाँघते-लाँघते सूरज अपना उजाला भले खो दे, ग्रह-नक्षत्र एक-एक करके अपने कक्ष से च्युत भी हो जायें, फिर भी इस समाज को सचमुच आधुनिक बनाना मुश्किल होगा।
औरतें विश्वविद्यालय से अगर कोई बड़ी डिग्री ले लें, छोटी-छोटी कसी हुई पोशाकें पहन कर बाहर निकलें, डिस्कोथे में जा कर नाचें-झूमें और दारू-सिगरेट पीयें तो समाज आधुनिक नहीं हो सकता। आधुनिकता की संज्ञा इतनी संकीर्ण नहीं है।
नहीं, यह समाज हरगिज़ आधुनिक नहीं है। समूचे समाज में असमानता की दर्गन्ध फैली हुई है। घर-घर में समझौते! इस समझौते की रीति-नीति का नाम, और कछ भले हो, 'आधुनिकता' हरगिज़ नहीं है। यह नितान्त ही प्रभु और दासी का शान्तिपूर्ण सह-अवस्थान है।
पति प्रतिदिन औरत के साथ बलात्कार करता है। अगर उस बलात्कार को बलात्कार में गिना जाये, इससे किसे एतराज़ होगा? एतराज़ तो अनगिनत बलात्कारियों को होता है। इन दिनों वे फूत्कार रहे हैं।
क्यों? क्या बात है? अब, बीवी से भी कुछ करने नहीं देंगे? ज़बर्दस्ती करता हूँ? हाँ, करता हूँ। अपनी बीवी से ही ज़बर्दस्ती करता हूँ न! मेरी चीज है! मेरा माल है! मेरी प्रॉपर्टी है। अपनी प्रॉपर्टी के साथ मैं जो चाहूँ, करूँगा! किसको क्या कहना है। वे लोग गृहस्थी का सुख-चैन शान्ति नष्ट करने आये हैं।'
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- इतनी-सी बात मेरी !
- पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
- बंगाली पुरुष
- नारी शरीर
- सुन्दरी
- मैं कान लगाये रहती हूँ
- मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
- बंगाली नारी : कल और आज
- मेरे प्रेमी
- अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
- असभ्यता
- मंगल कामना
- लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
- महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
- असम्भव तेज और दृढ़ता
- औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
- एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
- दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
- आख़िरकार हार जाना पड़ा
- औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
- सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
- लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
- तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
- औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
- औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
- पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
- समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
- मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
- सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
- ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
- रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
- औरत = शरीर
- भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
- कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
- जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
- औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
- औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
- दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
- वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
- काश, इसके पीछे राजनीति न होती
- आत्मघाती नारी
- पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
- इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
- नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
- लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
- शांखा-सिन्दूर कथा
- धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं