लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं औरत का कोई देश नहींतसलीमा नसरीन
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औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...
अंग्रेज़ विरोधी आन्दोलन के पूर्व तक, भारतीय नारी वर्ग अंग्रेज़ और आइरिश नारीवादियों से प्रेरित हो कर वोट की माँग के लिए सड़कों पर उतरने की तैयारी कर रहा था। लेकिन राष्ट्रीयतावाद की ऐसी हवा चली कि इससे पहले ही नारी की माँग का प्रसंग एकबारगी अदृश्य हो गया। उन दिनों सभी लोगों में आज़ादी का स्वाद लेने का चाव जाग उठा। नारी को दासी-बांदी सोचने का प्राचीन पुरुषतान्त्रिक आदर्श उन दिनों राष्ट्रवादी चेतना की खुराक बना। उन दिनों जितनी भी नारी संस्थाएँ या संगठन थे, सब जान-समझ कर या बिना समझे ही, राष्ट्रवादी आन्दोलन में शामिल हो गये। जब वोट का सवाल उठा तो सरोजिनी नायडू, बेग़म शाहनवाज, राधाबाई सुब्बारियन-सभी ने मिनमिनाती आवाज़ में कहने की कोशिश की कि नारी घर-गृहस्थी के धर्म का ठीक-ठीक पालन करते हुए भी राजनीति के आँगन में कदम रख सकती है, वोट दे सकती है। इसमें नारी का नारीत्व या सतीत्व, कुछ भी नहीं खोएगा। उसमें अगर राजनैतिक जागरूकता आ जाये तो अपनी सन्तानों को भी आदर्शवादी सन्तान बना सकेगी। किसी को कहीं कोई ग़लतफ़हमी न हो जाये, इसलिए नारी-नेत्रियों ने कह दिया- 'वे लोग नारीवादी नहीं हैं। पश्चिम के नारी वर्ग की तरह वे लोग लिंग-युद्ध नहीं चाहतीं। इसके अलावा भारतवर्ष में नारीवादी आन्दोलन की कोई ज़रूरत ही नहीं है क्योंकि यहाँ सभी कामकाज, स्त्री-पुरुष मिल कर करने के अभ्यस्त हैं।' चन्द उच्च-मध्यवित्त, शिक्षित, सम्पन्न, सुयोग-सविधा पाने वाली नारियाँ. कितने भयावह तरीके से देश की अधिकांश नारियाँ, जो वंचित, लांछित, निरक्षर, अवहेलित और असम्मानित थीं, उन लोगों को भूल गयीं।
भारत को आज़ादी मिल गयी देश का बँटवारा हो गया और धर्म-वर्ण निर्विशेष कन्धे से कन्धा मिला कर, खड़ी हुई नारी भी बँट गयी। अब नारी का परिचय 'नारी' होना नहीं रहा। अब वे बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक बन गयीं। अब वे लोग धर्म-आधारित सम्प्रदाय को टिकाये रखने की मशीन बन गयीं। अस्तु, नारी स्वाधीनता का जो आन्दोलन भारत में शुरू हो सकता था, उसकी करुण मृत्यु हो गयी। भारतीय संविधान ने धर्म की स्वाधीनता पर जोर दिया। इसी मौके का फ़ायदा उठाते हुए अशिक्षित, असहिष्णु मुसलमान पुरुषों ने मुस्लिम नारियों को भारतीय गणतन्त्र के मानवाधिकार, सुरक्षा और सही-सही न्याय से वंचित होने को लाचार कर दिया। शाहबानो के सन्दर्भ में यह देखा गया कि इस मामले में सम्प्रदाय में आस्था रखने वाली साम्प्रदायिक राजशक्ति मदद दे रही है।
सन् उन्नीस सौ चौंतीस में आयोजित भारतीय नारी सभा में समता-क़ानून की माँग उठायी गयी थी। उत्तराधिकार, विवाह, और सन्तान के अभिभावकत्व के क्षेत्र में नारी के विरुद्ध वैषम्य दूर करने की माँग की गयी थी। लेकिन उस दिन की माँगें, आज भी माँग बनकर रह गयी हैं। वैसे यह माँग आजकल काफ़ी कुछ अछूत जैसी है। 'मुस्लिम परिवार कानून' में सुधार-संस्कार या निर्मूल करने का ज़िक्र छेड़ते ही तथाकथित सेक्युलर औरत-मर्दो को यह डर लगा रहता है कि हिन्दू कट्टरवादी दल का हिमायती मान लिया जायेगा और उन लोगों की बदनामी होगी। समान दीवानी क़ानून-जिस क़ानून के मुताबिक़, नारी-पुरुष के बीच बराबरी सुनिश्चित हो, वह क़ानून क्या गणतन्त्र की पहली शर्त नहीं है? 'धार्मिक कानून' अगर मानवाधिकार का उल्लंघन करे, व्यक्ति स्वाधीनता ध्वंस करे, तो उस कानून को कायम रख कर, भारत किसका क्या भला कर रहा है? धर्म तो पल-प्रति-पल देश को इस रहा है, फिर भी अदूरदर्शी, स्वार्थी राजनीतिज्ञ, धर्म को और ज़्यादा पुष्ट कर रहे हैं। धर्म को और-और सदृढ़ करने का चाव नहीं मिटता।
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- इतनी-सी बात मेरी !
- पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
- बंगाली पुरुष
- नारी शरीर
- सुन्दरी
- मैं कान लगाये रहती हूँ
- मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
- बंगाली नारी : कल और आज
- मेरे प्रेमी
- अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
- असभ्यता
- मंगल कामना
- लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
- महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
- असम्भव तेज और दृढ़ता
- औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
- एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
- दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
- आख़िरकार हार जाना पड़ा
- औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
- सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
- लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
- तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
- औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
- औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
- पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
- समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
- मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
- सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
- ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
- रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
- औरत = शरीर
- भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
- कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
- जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
- औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
- औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
- दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
- वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
- काश, इसके पीछे राजनीति न होती
- आत्मघाती नारी
- पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
- इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
- नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
- लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
- शांखा-सिन्दूर कथा
- धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं