लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं औरत का कोई देश नहींतसलीमा नसरीन
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औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...
हिन्दू कानून में नारी-पुरुष के बीच का वैषम्य धीरे-धीरे कम कर दिया गया, लेकिन मुस्लिम क़ानून में नारी-अधिकार पर अभी भी बहुत बड़ा प्रश्नचिह्न लगा हुआ है। जिस देश में शास्त्र का अनुसरण करके 'परिवार कानून' तैयार किया जाता हो, उस देश को 'सेक्युलर' कैसे कहूँ? जिस राष्ट्र में सम्प्रदाय के आधार पर भिन्न-भिन्न दीवानी कानून मौजूद हो, उस राष्ट्र को 'असाम्प्रदायिक' कैसे कहूँ? जिस राष्ट्र में नारी-पुरुष के लिए समानाधिकार स्वीकृत न हो, उस राष्ट्र को 'गणतन्त्र' कैसे कहूँ?
बहुत-से लोगों का कहना है कि भारत की नारियाँ लम्बे अर्से से सती दाह, मुस्लिम परिवार क़ानून और अन्यान्य लिंग-आधारित वैषम्य के विरुद्ध आन्दोलन कर रही हैं। इस विषय में मेरी राय अलग है। मेरा विश्वास है कि सच्चे अर्थों में भारत में कोई शक्तिशाली नारीवादी संगठन नहीं था, कभी कोई नारीवादी आन्दोलन भी नहीं हुआ। अब तक नारी के पक्ष में जो कुछ भी हुआ है वह समाज-संस्कारक, शिक्षित पुरुषों की करुणा पर हुआ है। नारी वर्ग अशिक्षा के अँधेरे में कुँसा हुआ घर-गृहस्थी के पिंजरे में कैद रखने के पुरुषतान्त्रिक षड्यन्त्र का शिकार है। ये नारिया अपने अधिकारों के बारे में बेखबर हैं और स्वाधीनता के 'स' अक्षर से भी परिचित नहीं हैं। जिन लोगों को कुछ पाने के लिए कठिन परिश्रम नहीं करना पड़ा, वे लोग पाने का सच्चा अर्थ नहीं जानते। जिन लोगों को बिना किसी आन्दोलन के तरह-तरह के अधिकार मिल जाते हैं, उनके लिए अधिकारों की अहमियत समझना मुश्किल है। प्राप्य अधिकारों को वसूल करने के लिए कोई आन्दोलन करना भी मुश्किल है। नारी विरोधी कानून तले, नारी सालों-सालों से असहनीय बदहाली झेल रही है और खौफनाक सामूहिक बलात्कार की शिकार हो रही है; उन लोगों की बड़ी संख्या में हत्या की जा रही है-इसके बावजूद बहुत कम नारियाँ, सड़क पर प्रतिवाद के लिए उतरती हैं। भारत की नारियाँ इस उम्मीद में हाथ पर हाथ धरे बैठी हैं कि किसी महापुरुष का आगमन होगा और वह उन लोगों की समस्या का समाधान करेगा।
असल में, उस संस्कृति का किसी भी देश, किसी भी समाज में, संस्कृति के तौर पर सम्मान नहीं होना चाहिए, जिस संस्कृति में इन्सान के मुक्त-चिन्तन और स्वाधीनता को नुकसान पहुँचाने की वजह हो, जो संस्कृति निर्मम तरीके से इन्सान के अधिकार हरण करती है। संस्कृति मनुष्य के कल्याण के लिए है। जो संस्कृति मनुष्य के कल्याण को आघात पहुँचाए या तो उस संस्कृति में आमूल परिवर्तन लाया जाये या उसे कूड़े के ढेर पर फेंक दिया जाये। दुनिया के इतिहास में अनेक संस्कृतियाँ पुरानी हो कर, सड़-गल कर, निःशेष हो गयीं। इन्सान आगे बढ़ता गया।
नारी-अधिकार और बहु-संस्कृति वाले समाज को एक ही साथ कैसे टिकाये रखा जाये, आज हमारे सामने यह सवाल है। मेरी राय में, चाहे जैसे भी हो, अधिकारों को टिकाये रखना होगा, साथ ही मौजूद संस्कृति अगर ताल से ताल मिला कर चल सके तो बेहतर, वर्ना हम पिछड़ जायेंगे। नारी का अहम और पहला दायित्व है नारी अधिकार को बचाये रखना।
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- इतनी-सी बात मेरी !
- पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
- बंगाली पुरुष
- नारी शरीर
- सुन्दरी
- मैं कान लगाये रहती हूँ
- मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
- बंगाली नारी : कल और आज
- मेरे प्रेमी
- अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
- असभ्यता
- मंगल कामना
- लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
- महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
- असम्भव तेज और दृढ़ता
- औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
- एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
- दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
- आख़िरकार हार जाना पड़ा
- औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
- सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
- लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
- तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
- औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
- औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
- पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
- समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
- मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
- सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
- ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
- रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
- औरत = शरीर
- भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
- कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
- जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
- औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
- औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
- दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
- वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
- काश, इसके पीछे राजनीति न होती
- आत्मघाती नारी
- पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
- इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
- नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
- लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
- शांखा-सिन्दूर कथा
- धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं