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लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं

औरत का कोई देश नहीं

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :235
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7014
आईएसबीएन :978-81-8143-985

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औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...


घोर जातीयतावादी-धार्मिक पुरुषतान्त्रिक आदर्शों की तरफ़ से यह आदेश मिला है। नारी कुल भगवान सेवा, पति सेवा, गृहस्थी सेवा में मग्न रहे। भारतीय नारी को भारतीय आदर्शों का प्रतीक बनना होगा लेकिन भारत की पूर्ण नागरिकता की हक़दार वे लोग नहीं होंगी। भारत के आर्थिक-सामाजिक-राजनैतिक क्षेत्र में नारी के शामिल होने का विरोध होगा। ऐसा ही हुआ भी। यह सब किया है पश्चिमी शिक्षा में शिक्षित पुरुषों ने। ज्ञान, गुण में वे लोग ही सर्वेसर्वा हैं। शासक की भाषा और संस्कृति का पाठ ले कर, शासकों का तन्त्र-मन्त्र सीख कर, शासक पर ही आक्रमण किया है। चलो, यह तो अच्छी बात है, लेकिन कहाँ तो उन लोगों को समता और साम्य के सपने लिए, अन्तःपुर से नारी का उद्धार करें, लेकिन, ऐसा करने के बजाय वे उल्टा काम करते हैं।

सन उन्नीस सौ सत्रह से ले कर उन्नीस सौ चालीस तक, भारत में नारी के मताधिकार को ले कर, यूरोप, अमेरिका के आन्दोलन जैसा न सही, मीठी-मृदुल आवाज़ में तर्क-वितर्क जारी रहा। मताधिकार, किसी भी नागरिक का राजनतिक अधिकार होता है, फिर भी उसके इस अधिकार को, भारतीय हिन्दू-मुसलमान, दाना धर्मों के सम्प्रदायवादी नेताओं ने नामंजूर कर दिया। नारी को अगर मताधिकार मिल गया तो गृहस्थी रसातल में चली जायेगी, पर्दा-प्रथा को नुक़सान पहुँचेगा। समूचे हिन्दुस्तान में कितनी चीख-पुकार मचेगी। उन लोगों का कहना था नारीत्व और नागरिकता-इन दोनों का मिलन किसी शर्त पर भी सम्भव नहीं है।

नारी के लिए संरक्षित सीट या सार्वजनीन मताधिकार-दोनों में से कौन-सा चाहिए? नारी वर्ग का एक दल एक पक्ष में, दूसरा विपक्ष में। सन् तीस के दशक की शुरुआत में यही होता रहा। लम्बे अर्से तक राजनीतिज्ञों में तर्क-वितर्क चलता रहा। इस बीच सन् 1932 की सितम्बर में अचानक एक दिन पूना पैक्ट में कांग्रेस के चन्द नेताओं और साथ में गाँधी जी ने सहमति प्रदान की। वे लोग हिन्दू इलाकों में नारी के लिए आसन संरक्षित कर आये। उन लोगों ने समझौता कर लिया। मताधिकार के लिए विभिन्न धर्मावलम्बी नारियों ने एकजुट हो कर जो आन्दोलन छेड़ा था, बेहद ठण्डे दिमाग से उस आन्दोलन की आवाज़ अवरुद्ध कर दी।

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    अनुक्रम

  1. इतनी-सी बात मेरी !
  2. पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
  3. बंगाली पुरुष
  4. नारी शरीर
  5. सुन्दरी
  6. मैं कान लगाये रहती हूँ
  7. मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
  8. बंगाली नारी : कल और आज
  9. मेरे प्रेमी
  10. अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
  11. असभ्यता
  12. मंगल कामना
  13. लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
  14. महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
  15. असम्भव तेज और दृढ़ता
  16. औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
  17. एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
  18. दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
  19. आख़िरकार हार जाना पड़ा
  20. औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
  21. सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
  22. लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
  23. तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
  24. औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
  25. औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
  26. पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
  27. समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
  28. मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
  29. सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
  30. ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
  31. रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
  32. औरत = शरीर
  33. भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
  34. कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
  35. जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
  36. औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
  37. औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
  38. दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
  39. वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
  40. काश, इसके पीछे राजनीति न होती
  41. आत्मघाती नारी
  42. पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
  43. इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
  44. नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
  45. लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
  46. शांखा-सिन्दूर कथा
  47. धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं

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