लोगों की राय

लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं

औरत का कोई देश नहीं

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :235
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7014
आईएसबीएन :978-81-8143-985

Like this Hindi book 7 पाठकों को प्रिय

150 पाठक हैं

औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...


इमराना को जब तक ‘उन लोगों की औरत' के रूप में देखा जायेगा तब तक 'हमारी बेटी' के रूप में स्वीकार नहीं किया जायेगा। जितने दिनों तक वह भारत की बेटी नहीं समझी जायेगी, उतने दिनों तक ‘बहुसंख्यक सम्प्रदाय' उँगली उठाता रहेगा और दिखाता रहेगा। इमराना के दुर्भाग्य को वे लोग अपना दुर्भाग्य महसूस नहीं करेंगे। चूँकि उन्हें इसका अहसास नहीं होगा, इसलिए इसके ख़िलाफ़ उनकी जुबान नहीं खुलेगी, न ही प्रतिवाद में चीख-पुकार मचाएँगे कि कहीं 'मुस्लिम विरोधी' होने की बदनामी उनके नाम न लिख दी जाये। इस डर से वे लोग सहमे रहेंगे। बर्बरता को कबूल कर लेने से ही असाम्प्रदायिक या सेक्युलर के तौर पर शान से 'सुनाम' हो जाता है। वाक़ई आसानी से नाम कमाने का कैसा सुनियोजित उपाय है। आँख-कान-नाक दिमाग़ मूंदे रखकर, नाम कमाने का कितना आसान तरीका है। चलो मान लिया कि सुनाम हो गया लेकिन देश की क्या हालत होती है? देश के लगभग पन्द्रह करोड़ लोग अगर अँधेरे में पड़े रहें, अगर अशिक्षा-कुशिक्षा, अन्धत्व और दरिद्रता के अलावा उन लोगों के सामने कुछ भी न हो तो उन लोगों में अतिशय स्वाभाविक तरीके से ही ठगों, जुआरियों, बदमाशों, बलात्कारियों और उग्रवादियों, खूनियों का वोलवाला तो होगा ही, हरेक क़िस्म के उपद्रव सिर उठाएँगे ही! ऐसा कोई है जो दूरदर्शी हो? है कोई लोकनीतिज्ञ इमराना जैसी औरतों को बचाने के लिए न सही, कम-से-कम देश को बचाने के लिए धार्मिक शिक्षा की जगह धर्म-मुक्त शिक्षा का इन्तजाम करना, शरीयती क़ानून की जगह अभिन्न दीवानी क़ानून का प्रणयन करना, अँधेरे की जगह उजाला बिखेर देने की ज़रूरत, जितने दिनों तक लोकनीतिज्ञ वर्ग महसूस नहीं करता, उतने दिनों तक भारत के भविष्य के बारे में डर-आशंका दूर नहीं हो सकती। महज आर्थिक विकास के ज़रिए किसी देश को सभ्य नहीं बनाया जा सकता। अगर यह सम्भव होता, तो सऊदी अरब में मानवाधिकार, नारी-अधिकार और गणतन्त्र ज़रूर विराजता।

वैसे भारत में जनहित कार्यों की कमी नहीं है। 'इसे बचाओ, उसकी रक्षा करो'-इस बारे में पूरे वर्ष भर आन्दोलन लगा ही रहता है। विभिन्न विषयों की रक्षा के लिए तरह-तरह के क़ानून भी प्रचलित हैं। लेकिन मुसलमान लड़कियों को चरम दुर्दशा से, लांछन से, अपमान से, मृत्यु से रक्षा के लिए कोई आन्दोलन या कोई क़ानून हिन्दुस्तान में नहीं है। इस देश में आठ करोड़ मुसलमान औरतों की तुलना में, एक काले-हिरण का मोल कहीं ज़्यादा है। काले-हिरण को बचाने के लिए क़ानून भी मौजूद हैं, लेकिन आठ करोड़ मुसलमान औरतों को बचाने के लिए कोई क़ानून नहीं है।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. इतनी-सी बात मेरी !
  2. पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
  3. बंगाली पुरुष
  4. नारी शरीर
  5. सुन्दरी
  6. मैं कान लगाये रहती हूँ
  7. मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
  8. बंगाली नारी : कल और आज
  9. मेरे प्रेमी
  10. अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
  11. असभ्यता
  12. मंगल कामना
  13. लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
  14. महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
  15. असम्भव तेज और दृढ़ता
  16. औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
  17. एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
  18. दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
  19. आख़िरकार हार जाना पड़ा
  20. औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
  21. सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
  22. लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
  23. तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
  24. औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
  25. औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
  26. पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
  27. समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
  28. मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
  29. सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
  30. ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
  31. रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
  32. औरत = शरीर
  33. भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
  34. कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
  35. जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
  36. औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
  37. औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
  38. दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
  39. वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
  40. काश, इसके पीछे राजनीति न होती
  41. आत्मघाती नारी
  42. पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
  43. इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
  44. नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
  45. लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
  46. शांखा-सिन्दूर कथा
  47. धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं

विनामूल्य पूर्वावलोकन

Prev
Next
Prev
Next

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book