लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं औरत का कोई देश नहींतसलीमा नसरीन
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औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...
जब कोई शिश जन्म लेता है उस वक़्त उसका कोई धर्म नहीं होता। उसे अपने माँ-बाप के धर्म में शामिल होने के लिए विवश किया जाता है। जब उसमें बुद्धि आती है तब उसे कोई अधिकार नहीं होता कि वह अपने लिए कोई धर्म या धर्महीनता को पसन्द करे। शाहबानो, इमराना, लतीफुन्निसा जैसी औरतों ने मुसलमान घराने में जन्म लिया, क्या यही उनका कसूर है? राष्ट्र उन लोगों के नागरिक अधिकारों का उल्लंघन क्यों करेगा? वे लोग गणतान्त्रिक अधिकारों से वंचित क्यों हों? मानवाधिकार, समानाधिकार, वाक्-स्वाधीनता और प्राप्य सुरक्षा उन्हें क्यों न मिले? उनका कसूर क्या है? आज, ये औरतें बेड़ियों में, बुर्के में, अँधेरे में, कीचड़ में लोग हैं। ये लोग स्वाति, सरस्वती हैं; ये लोग द्रौपदी, पार्वती हैं; ये लोग श्वेता, महाश्वेता हैं। अगर एक भी औरत बन्दिनी है, तो मेरी राय में सभी औरतें बन्दिनी हैं। इस समाज में, इस देश में औरतों को बन्दिनी बनाया जा रहा है और इसी देश, इसी समाज के ही इन्सान हो कर, जो औरतें अपने को मुक्त समझती हैं, उन सबको धिक्कार है। जब तक सभी औरतें मुक्त नहीं होती, तब तक कोई एक भी औरत मुक्त नहीं है। यह बोध औरतों के मन में आखिर कब जागेगा? वैसे जाग भी जाये तो क्या उपाय?
औरतें तो छोटे-बड़े-मझोले, तरह-तरह के पिंजरे में बंदिनी हैं। इस कठिन, कठोर पुरुषतन्त्र के ख़िलाफ़ कोई क्या कर सकता है? हाँ, चीख-पुकार मचायी जा सकती है! यूँ चीख-पुकार मचाने से और कुछ भले न हो, कम-से-कम आवाज़ तो होती है! औरतें मिल जुल कर इतना तो कर सकती हैं! अपने को फिजूल सुखी या स्वाधीन न मानें। वे लोग निहायत सुरक्षा और निरुपद्रव ढंग से जी रही हैं, यह समझने की भूल न करें।
भारत आज सच्चे अर्थों में गणतन्त्र की मिसाल बन सकता था। पड़ोसी राज्य भी धीरे-धीरे भारत की मिसाल को कबूल करते, और ज़्यादा गणतान्त्रिक हो पाते। सिर्फ पड़ोसी देश ही क्यों, मध्य-प्राच्य के तमाम धर्मप्राण राष्ट्र भी इससे सबक लेते। आज भारत इतना विशाल राष्ट्र है कि भविष्य की विराट् अर्थनैतिक शक्ति और अतुल सम्भावनाओं के साथ, शान से सिर ऊँचा किये खड़ा है। यह भारत देश ही सभ्यता की जिम्मेदारी अपने कन्धे पर ले सकता था। अगर बड़े ही यह जिम्मेदारी न उठाएँ, तो कौन उठाएगा?
आगामी नवम्बर में कलकत्ता शहर में धर्ममुक्त मानववादी मंच का कन्वेंशन होने वाला है। कन्वेंशन में 'अभिन्न दीवानी क़ानून चाहिए'-यह माँग उठायी जायेगी। इस मंच से जुड़े सभी लोगों का जन्म मुस्लिम परिवारों में हुआ है। गयासुद्दीन, सुलताना, वाजिदा, मुजफ्फर हुसैन, सुलेखा बेग़म, जहाँनारा खातून, फातिमा रहमान, गुलाम यज़दानी, मुहब्बत हुसैन वगैरह बहुतेरे लोग इसमें शामिल हैं। सरकार मुट्ठी भर जंगियों को मुसलमानों का प्रतिनिधि न मान कर, क्या इन शिक्षित, सचेतन, विवेकवान, युक्तिवादी, विज्ञानमना, मानववाद और मानवाधिकार, गणतन्त्र और सेक्युलर विचारों में आस्था रखने वाले लोगों को मुसलमानों के प्रतिनिधि स्वीकार नहीं कर सकती? अगर इन्हें ही मुसलमानों का प्रतिनिधि मान ले तो पूरी तस्वीर ही बदल जायेगी। हम एक वैषम्यहीन आगामी दिनों का सपना देख सकते हैं। इस मंच की और एक माँग है-'मानवाधिकार, नारी अधिकार, धर्मयुक्त शिक्षा-व्यवस्था, धार्मिक आतंकमुक्त समाज' इन सबकी प्रतिष्ठा करने का भी निर्विघ्न प्रयास किया जा सकता है।
यह कोई बहुत बड़ी माँग नहीं है। मामूली-सी माँग है! बेहद मामूली-सी! ईषत् सभ्य होने की माँग! राष्ट्र, क़ानून और समाज को किंचित सभ्य बनाने की माँग! यह माँग कछ बेतकी भी नहीं है। न्यायपूर्ण माँग है। जो लोग इस माँग को चुटकी बजा कर उड़ा देना चाहते हैं, वे लोग क्या सच ही वैषम्यहीन, विद्वेषहीन समाज चाहते हैं? ऐसे लोग क्या वाक़ई ही देश का थोड़ा-सा भी भला चाहते हैं?
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- इतनी-सी बात मेरी !
- पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
- बंगाली पुरुष
- नारी शरीर
- सुन्दरी
- मैं कान लगाये रहती हूँ
- मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
- बंगाली नारी : कल और आज
- मेरे प्रेमी
- अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
- असभ्यता
- मंगल कामना
- लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
- महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
- असम्भव तेज और दृढ़ता
- औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
- एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
- दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
- आख़िरकार हार जाना पड़ा
- औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
- सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
- लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
- तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
- औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
- औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
- पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
- समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
- मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
- सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
- ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
- रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
- औरत = शरीर
- भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
- कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
- जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
- औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
- औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
- दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
- वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
- काश, इसके पीछे राजनीति न होती
- आत्मघाती नारी
- पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
- इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
- नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
- लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
- शांखा-सिन्दूर कथा
- धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं