लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं औरत का कोई देश नहींतसलीमा नसरीन
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औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...
वे लोग अलग हैं हम अलग।' 'मुसलमान अगर खुद ही अपनी क़ब्र खोदने को उतावले हों तो हमें क्या फर्क पड़ता है! हम जीते रहें, बस, काफ़ी है।' इस किस्म का कांड ज्ञानहीन वाक्य बुद्धिजीवी भी रटते रहते हैं। लेकिन अगर मुसलमान ज़िन्दा नहीं रहा तो वे लोग भी ज़िन्दा नहीं बचेंगे, यह हक़ीकत वे लोग बार-बार भूल जाते हैं। ज़िन्दा रहना है तो एक साथ सभी को ज़िन्दा रहना है। वैसे मुसलमान हाथों में भारी-भरकम कुदाल-फावड़ा लिए सच ही अपनी क़ब्र खुद रहे हैं। बहुत कम संख्या में लोगों को यह जानकारी है कि वे लोग कब्र खोद रहे हैं। बुद्धिहीन बाकी लोग यही समझते हैं कि उन लोगों के लिए बहिश्त तक पहुँचने के लिए सुरंग-पथ तैयार किया जा रहा है। सबसे ज़्यादा अफ़सोस की बात यह है कि हम चन्द बचे हुए लोग यह नहीं जानते कि वह हमारे लिए भी सुरंग-पथ है लेकिन बहिश्त तक जाने के लिए नहीं, बल्कि दोजख यानी नरक तक पहुँचने की राह है। फावड़ा-कुदाल ले कर, जो लोग अपनी कब्र खोद रहे हैं, वे लोग सिर्फ अपने लिए ही नहीं दूसरों के लिए भी कब्र खोद रहे हैं। जिनके लिए यह कब्र नहीं खोदी गयी, जो लोग सुरक्षित राह पर चल रहे हैं उन लोगों का भी पैर फिसलेगा और वे लोग भी उसी कब्र में जा पड़ेंगे, अरे भाई, मिट्टी तो एक ही है या नहीं? असल में एक ही राष्ट्र, एक ही देश के लोगों के लिए अगर अलग-अलग क़ानून कायम हो, तो इन्सान हमेशा अलग-थलग ही रह जाता है। सेग्रिवोटेड! विच्छिन्न! वे लोग किसी हाल में भी एक नहीं हो सकते। सौहार्द का बन्धन नहीं पनपता। जब तक कि हम और वे लोग एकत्र हो कर निवास नहीं करते, तब तक वे लोग हमें किसी अचीन्हे ग्रह के अचीन्हे जीव ही नज़र आते रहेंगे। नज़र न आने का कोई कारण भी नहीं है। मूल जनस्रोत से पिछड़े हुए किसी भी अल्पसंख्यक के लिए मुक्त चिन्तन में पारदर्शी होना मुश्किल है। ऐसे लोग आत्मपरिचय का संकट झेलने को विवश हैं। यही झेलते-झेलते किसी दिन वे लोग अपने परिचय के लिए धर्म को ही कस कर थाम लेते हैं। धीरे-धीरे वे लोग धर्मवादी हो उठते हैं? धीरे-धीरे वही लोग असहिष्णु, अचेतन, कट्टरवादी बन जाते हैं।
बी.जे.पी. अभिन्न दीवानी कानून की बात करती है। यह सुनकर 'सो काल्ड सेक्युलर' यानी तथाकथित सेक्युलर नाराज़ हो गये हैं। चूँकि वह बी.जे.पी. विरुद्ध शिविर है, इसलिए उनके विपरीत बोलना धर्म है। अपने रचे-गढ़े नियमों को मानते हुए वे लोग कहते हैं कि अभिन्न दीवानी विधि हम नहीं मानते। न मानने की वजह? एक ही वजह है। इसलिए कि इसे बी.जे.पी. मानती है। चूंकि बी.जे.पी. ने मान लिया है, इसलिए दूसरे दल इसे हरगिज़ नहीं मानेंगे। बी.जे.पी. अगर कहे कि सूरज पर्व दिशा में उगता है, तो क्या विरोधी-खेमे को यह कहना होगा कि सरज पर्व में नहीं उगता? बहतेरे लोगों का यह खयाल है कि अभिन्न दीवानी कानून का मतलब है कि मुसलमानों को शायद 'हिन्दू धर्म' मानना होगा। लेकिन यहाँ हिन्दू क़ानून की बात नहीं हो रही है, किसी अन्य धर्म-आधारित क़ानून की बात भी नहीं हो रही है। 'अभिन्न दीवानी कानून' से मेरा मतलब है, समानाधिकार के आधार पर बनाये गये कानून! जिस कानून में धर्म का 'ध' भी न हो, जो क़ानून औरत और मर्द के लिए समान अधिकार सुनिश्चित करे, किसी भी सभ्य गणतान्त्रिक राष्ट्र के लिए ऐसे ही धर्म-गन्धहीन, निष्कलुष क़ानून नितान्त अपरिहार्य हैं, जो राष्ट्र चन्द लोगों को मानवाधिकार की सुविधा प्रदान करता है और कुछ लोगों को उस सुविधा से वंचित रखने का कानून बहाल रखता है, उस राष्ट्र को भले और कुछ भी कहा जाये, गणतान्त्रिक नहीं कहा जा सकता। कोई भी धार्मिक कानून, गणतन्त्र मानवाधिकार और नारी-अधिकारों के प्रतिकूल है यह किसी भी स्वस्थ-समझदार इन्सान की समझ में आसानी से आ जाता है।
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- इतनी-सी बात मेरी !
- पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
- बंगाली पुरुष
- नारी शरीर
- सुन्दरी
- मैं कान लगाये रहती हूँ
- मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
- बंगाली नारी : कल और आज
- मेरे प्रेमी
- अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
- असभ्यता
- मंगल कामना
- लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
- महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
- असम्भव तेज और दृढ़ता
- औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
- एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
- दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
- आख़िरकार हार जाना पड़ा
- औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
- सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
- लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
- तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
- औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
- औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
- पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
- समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
- मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
- सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
- ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
- रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
- औरत = शरीर
- भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
- कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
- जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
- औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
- औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
- दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
- वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
- काश, इसके पीछे राजनीति न होती
- आत्मघाती नारी
- पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
- इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
- नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
- लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
- शांखा-सिन्दूर कथा
- धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं