लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं औरत का कोई देश नहींतसलीमा नसरीन
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औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...
'इमराना तो हमारी नहीं है, उन लोगों की है-' इसलिए 'उन लोगों की जो इच्छा होगी, इमराना के साथ वही करेंगे। बहुतेरे गैर-मुसलमान उठते-बैठते ऐसी बात करते हैं। सवाल यह उठता है, ये ‘उन लोग' आखिर कौन हैं? कहा जाता है, वे मुसलमान लोग हैं। इसका मतलब यह हुआ कि इमराना मुसलमानों की है इसलिए उसे मुसलमानी कानून व्यवस्था का शिकार होना ही होगा। मुसलमान होने के बजाय अगर वह हिन्दू या ईसाई या बौद्ध या जैन या यहूदी या नास्तिक होती, तो उसे शिकार न होना पड़ता। भारत में भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों के लिए भिन्न-भिन्न धर्म आधारित क़ानून मौजूद हैं। अर्सा पहले इन कानूनों में सुधार भी किया गया है। जैसे हिन्दू पुरुष के लिए बहु-विवाह निषिद्ध है। हिन्दू नारी सम्पत्ति के उत्तराधिकार से अब वंचित नहीं है। लेकिन मुसलमानों के सिर पर वही सातवीं शती के क़ानून लदे हुए हैं। जो क़ानून जैसा था, वैसा ही है। इतने लम्बे अर्से में भी उनमें कोई सुधार-संस्कार नहीं हुआ। भारतवर्ष के सभी मुसलमानों को वह सड़ा-गला क़ानून सिर झुका कर कबूल करना पड़ता है, भले वे सब क़ानून उन लोगों को पसन्द हों या न हों। लेकिन पड़ोसी मुस्लिम देशों में शरीयती क़ानून में काफी सुधार किया गया है। वहाँ मर्दो की जुबान पर आये, 'तलाक-तलाक-तलाक' आते ही तलाक नहीं होता। वहाँ मर्दो को एक साथ चार-चार बीवियाँ रखने की ख्वाहिश हरगिज़ पूरी नहीं होती। इस्लामी देशों में भी शरीयती क़ानून में सुधार हो रहा है। एकमात्र भारत में ही सुधार की कोई कोशिश नहीं है। आज इमराना को बचाने के लिए दीवानी या फ़ौजदारी कानूनों का सहारा लेना पड़ रहा है। इस्लामी क़ानून या शरीयती कानून में बलात्कारी ससुर के लिए कोई सज़ा नहीं है। सज़ा तो है ही नहीं, बल्कि उपहार के तौर पर नज़राने का इन्तजाम है। बलात्कार की शिकार औरत को नज़राने के तौर पर बलात्कारी के लिंग की पूजा करना पड़ती है। ताकि बलात्कारी निश्चिन्त और बेफिक्र हो कर उससे दिन-रात बलात्कार का सिलसिला जारी रखे। भारतीय क़ानून के तहत इमराना जैसी औरतों को जरूर इन्साफ़ मिलता है, लेकिन धार्मिक क़ानून की नाइन्साफी दोबारा सिर उठाती है। एक क़ानून के तहत औरतों को बचाया जाता है लेकिन दूसरे क़ानून के तहत उसकी जान ले ली जाती है। मेरा सवाल है, शिष्ट क़ानून के साथ-साथ अशिष्ट क़ानून बहाल रखने का क्या तुक है? समता के अंग-प्रत्यंग में असमता के लालन-पालन करने का उद्देश्य क्या है? परस्पर-विरोधी दो कानूनों के शान्तिपूर्ण सहकार के लिए, उन्हें प्यार से झूला झुलाने में आखिर क्या फायदा है? वैसे चंद मर्दो को इससे ज़रूर फ़ायदा होता है। औरतों पर छड़ी घुमाकर मज़ा लूटने का फायदा? लेकिन इससे तमाम औरतों का तो नुक़सान होता है। आधी जनसंख्या का नुक़सान! प्रचुर सम्भावनाओं का नुक़सान! इससे तो बेहतर है, एक ही कानून कायम किया जाये, जिस कानून के तहत दोषी को सज़ा मिले और निर्दोष को रिहाई। लेकिन नहीं, इसमें बहुतेरे लोगों को आपत्ति है। आपत्ति उठायी जाती है चन्द जंगी उग्रवादी मुसलमानों और लोकनीति (राजनीति) के लोगों की तरफ़ से। 'मुसलमान चूँकि शरीयती कानून चाहते हैं, इसलिए उन लोगों को यह क़ानून देना होगा।' लेकिन क्यों चाहते हैं, कौन-सी शिक्षा के तहत चाहते हैं, कौन-सी विद्या पढ़ कर चाहते हैं यह क़ानून किसी का, कोई नुकसान तो नहीं कर रहा है-इन सब तथ्यों की जाँच-पड़ताल करने वाला कोई नहीं है। यह कानून क्या वे सब मुसलमान चाहते हैं जो शिक्षित और विवेकवान हैं? मुसलमान लोग क्या यह क़ानून चाहते अगर वे लोग विज्ञान-शिक्षा में सच ही शिक्षित होते? 'मुस्लिम पारिवारिक और उत्तराधिकार कानून' इन्सान के मौलिक अधिकारों का लंघन कर रहा है या नहीं, औरत के बराबरी के हक को स्वीकृति देता है या नहीं, गणतन्त्र की सारी शर्ते पूरी करता है या नहीं-यह कौन देखता है, बतायें? यह कौन देखता है कि धार्मिक कानूनों की पहली और मुख्य तथा एकमात्र शिकार औरतें ही होती हैं। औरतें और सिर्फ औरतें!
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- इतनी-सी बात मेरी !
- पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
- बंगाली पुरुष
- नारी शरीर
- सुन्दरी
- मैं कान लगाये रहती हूँ
- मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
- बंगाली नारी : कल और आज
- मेरे प्रेमी
- अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
- असभ्यता
- मंगल कामना
- लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
- महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
- असम्भव तेज और दृढ़ता
- औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
- एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
- दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
- आख़िरकार हार जाना पड़ा
- औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
- सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
- लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
- तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
- औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
- औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
- पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
- समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
- मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
- सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
- ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
- रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
- औरत = शरीर
- भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
- कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
- जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
- औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
- औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
- दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
- वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
- काश, इसके पीछे राजनीति न होती
- आत्मघाती नारी
- पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
- इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
- नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
- लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
- शांखा-सिन्दूर कथा
- धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं