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लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं

औरत का कोई देश नहीं

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :235
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7014
आईएसबीएन :978-81-8143-985

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औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...


इसके बाद प्रेम, दोपहरी की फुरफुरी हवा की तरह ज़िन्दगी को प्यार से सहला जाता था। पंखों जैसी हल्की-सी छुअन! किसी ने मुझे मुग्ध आँखों से निहारा था! कोई एक दिन कानों-कान मुझे कोई गीत सुना गया। उसके बाद, काफ़ी अर्से तक अपनी उमड़ती जवान देह के साथ उचाट अकेले पड़े रहना! उस अकेलेपन ने मुझे अपने प्रति आत्मविश्वास से भर दिया। इसने अपने प्रति मेरी श्रद्धा हजारों गुणा और ज़्यादा बढ़ा दी! इसने मुझे सुदृढ़ किया; इसने मुझे और ज़्यादा दुर्विनीत बना दिया। आत्मनिर्भर, एक जन डॉक्टर-लेखिका अकेली रहने लगी। औरत की स्वाधीनता के पक्ष में काफी तीखा लिखने लगी। उन दिनों समूचे देश में हड़कम्प मचा हुआ था। लेकिन एक दिन मेरे दिल के दरवाज़े अचानक खुल गये; फागुनी हवा का कोई झोंका मुझे छू गया। मेरी आँखों ने एक अद्भुत सुदर्शन नौजवान को देखा! एक दिन तो मैं उसे यूँ एकटक निहारने लगी कि उसने मारे शर्म के अपनी नज़रें हटा लीं। मेरी आँखों में मुग्धता उतर आयी थी और उस मुग्धता के सैकड़ों तीर क्या उसके तन-बदन पर बिंध नहीं गये थे? सो, एक दिन सन्तरे के रस के साथ कुछेक बूंद वोदका मिला कर पी गयी और नशे में टुन्न हो गयी। जैसे ही मेरे पैर लड़खड़ाये, उस नौजवान ने हाथ बढ़ा दिया। उसका वह स्पर्श पा कर मेरा नशा और गहरा गया। मेरा अंग-अंग, उसके अंग के स्पर्श के लिए रो उठा। बस, एक तीखे प्रेम की शुरुआत हो गयी। हाँ, पहली बार किसी विवाहित पुरुष से मुझे प्यार हुआ। नहीं, उसे प्यार करने के अलावा मेरे लिए और कोई उपाय नहीं था। उसे साथ ले कर मैं समूचा शहर घूमती फिरी। उसका हाथ थामे हुए चलती रही। यार-दोस्तों के अड्डों में शामिल होने लगी, साथ में वह ! समूचा घर स्वजन-रिश्तेदारों से भरा रहता था और मैं उस नौजवान के साथ निभृत एकान्त कमरे में! हाँ-हाँ, उस मर्द से मैं प्यार करती थी! उसे ले कर मैं मग्न थी! बिलकुल मस्त! अब कहो, किसे क्या कहना है! नहीं, किसी को कुछ नहीं कहना था! अपनी आज़ादी, इतने तीखे आवेग के साथ जीने का सख मैंने पहले कभी महसूस नहीं किया था। मेरे सौन्दर्य, व्यक्तित्व, मेरे अधिकार-बोध, मेरी मनुष्यता, मानवता, मेरी ज़िन्दादिली की तुलना में वह नौजवान अतिशय म्लान हो आया। उस नौजवान के साथ प्रेम और निश्चित पृथकवास ने मुझे प्रचुर प्रशान्ति दी। अब मेरे जीवनयापन में, मेरे लेखन में, मेरी तूलिका में, मेरे दिल बहलाव में, मेरी मन-मर्जी में, मेरे प्रेमी का अबाध प्रवेश नहीं था। उसमें उसे नाक-कान-सिर गलाने की भी अनुमति नहीं थी। लेकिन जब मेरे मन में प्रेम जागता था, मैं उसे चूमने लगती थी। उसे पलंग पर लिटा कर, उसके बदन को प्रेम के पंख से सहलाती थी। उसे स्रोत में उतार कर, उसे भिगो कर, बहा कर एकाकार कर देती। उसे तुमुल तुफान में गुम कर देती थी। उसे प्रेमी के रूप में रचती-गढ़ती थी, अपने त्याग या विसर्जन के ज़रिए नहीं, अपने प्रेम के ज़रिए! कुछ इस ढंग से कि वह प्रेमी, मेरे बिना जी न सके। उन पलों में मैं उसे इतना प्यार देती थी कि दुनिया में मेरे अलावा उसका और कोई नहीं है। और उन्हीं दिनों, मेरे लेखन, मेरी नीति, मेरे आदर्श समता के लिए मेरी जंग के ख़िलाफ़ लोग एकजुट होते रहे। शठवाद, पुरुषवाद, कट्टरवाद मेरी फाँसी की माँग करते हुए मीटिंग सभाएँ करते रहे; मेरा खून पी जाने के लिए मुझ पर टूट पड़े उन दिनों हर रोज़ अपनी जान बचाने के लिए भागती फिरी; रात की चादर ओढ़ कर बेतहाशा दौड़ती रही। उस वक़्त मैंने अपने उस प्रेमी की भी तलाश की। लेकिन कहाँ था वह? ना, वह कहीं नहीं था। वह मुझसे सुरक्षित दूरी बनाए हुए, आराम से अपनी शादीशदा ज़िन्दगी में मग्न था। प्रबल भूकम्प में किसी नौ-मंजिली इमारत की तरह समूचा विश्वास, समूचा भरोसा ढह गया।

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    अनुक्रम

  1. इतनी-सी बात मेरी !
  2. पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
  3. बंगाली पुरुष
  4. नारी शरीर
  5. सुन्दरी
  6. मैं कान लगाये रहती हूँ
  7. मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
  8. बंगाली नारी : कल और आज
  9. मेरे प्रेमी
  10. अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
  11. असभ्यता
  12. मंगल कामना
  13. लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
  14. महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
  15. असम्भव तेज और दृढ़ता
  16. औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
  17. एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
  18. दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
  19. आख़िरकार हार जाना पड़ा
  20. औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
  21. सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
  22. लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
  23. तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
  24. औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
  25. औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
  26. पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
  27. समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
  28. मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
  29. सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
  30. ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
  31. रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
  32. औरत = शरीर
  33. भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
  34. कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
  35. जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
  36. औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
  37. औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
  38. दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
  39. वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
  40. काश, इसके पीछे राजनीति न होती
  41. आत्मघाती नारी
  42. पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
  43. इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
  44. नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
  45. लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
  46. शांखा-सिन्दूर कथा
  47. धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं

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