लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं औरत का कोई देश नहींतसलीमा नसरीन
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औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...
उन दिनों मैं थी, धान-पान सी छरहरी, खूबसूरत लड़की! उन दिनों मैं कविताएँ लिखने लगी थी और मेडिकल के प्रथम वर्ष में थी। उसकी कविताएँ मुझे पसन्द थीं और 'प्रेम' शब्द को मैं बेहद रूप से प्यार करती थी। कवि का बाहरी हुलिया उस प्रेम और कविता से हार गया। इतने पर भी क्या हुआ? लज्जावती लड़की तो उससे आँखें भी नहीं मिला सकती थी। अपने प्रेमी को 'तुम' कहने में, मुझे पूरे पाँच वर्ष का समय लगा। उसके साथ सोई तो विवाह के भी कई साल बाद! विवाह गुपचुप किया! नोटरी पब्लिक काग़ज़ पर! घर में किसी को भी पता नहीं था! अब्बू को अगर खबर हो जाती तो वे मेरा खून कर देते। मुझे यह अन्दाज़ा पहले से ही था इसलिए मैंने अपने विवाह की खबर गुप्त रखी। मैं डॉक्टरी पढ़ती रही और मेरा प्रेमी उदास घुमन्तु, सड़क-सड़क घूमता-भटकता था और अड्डेबाजी करता था। कवि और मैं, दोनों दो शहरों में! रात जाग-जाग कर कवि को खत लिखा करती थी। कवि के खत भी हर रोज़ आते थे। उन ख़तों को मैं बार-बार पढ़ा करती थी। वे ख़त नहीं, कविता होती थी। वे तमाम ख़त पीले रंग के लिफाफे में, नत हाथ में लेते ही मन कैसा-कैसा तो होने लगता था। वह 'कैसा-कैसा मन' ठीक कैसा होता था। यह मैं बयान नहीं कर सकती। वे ख़त बिना पढ़े ही, देर-देर तक मैं उसे हाथों में लिये रहती थी। उस ख़त में जाने ऐसा क्या होता था जो अन्दर से निकल कर मुझे ठण्डक से भर देता था। कहीं झरने की कल-कल की आवाज़ सुनाई देने लगती थी, कहीं टूट कर बारिश होने लगती थी। बहरहाल, एक दिन इन्तज़ार ख़त्म हुआ। एक दिन मैं अपने स्वजन मित्रों को बेभाव रुला कर, कवि का हाथ थाम कर घर से निकल आयी। छोटू दा ने बिलकुल ऐसा ही किया था। गीता मित्र के लिए उसने घर द्वार छोड़ दिया था। प्रेम में पड़ कर छोटू'दा ने जो-जो किया था, मैंने भी ठीक वही किया। छोटू दा के उस टिन के ट्रंक में छिपाए गये ख़तों से शरीर में प्रेम का ऐसा बीज अंकुरित हो उठा था कि जिसने विशाल पेड़ बन कर जैसे छोटू'दा को जकड़ लिया था, उसी तरह मुझे भी। लेकिन उस प्रेम ने मुझे आस-पास से यूँ बाँध लिया था कि मुझे यह नज़र ही नहीं आया। कि मेरा प्रेमी असल में मुझे प्यार ही नहीं करता, बल्कि जहाँ-तहाँ रमणी पाते ही रमण करता है और मुझसे लगातार झूठ बोलता रहता है। उसकी नज़र में प्रेमिका और गणिका में कहीं कोई फ़र्क नहीं है। वह सिर्फ रिवाज़ के माफिक एक अदद औरत चाहता है, औरत की सेवा चाहता है और हर रात बिना पैसे के निश्चित सम्भोग चाहता है। मेरे प्रेमी की देह में यौन रोग था और वह रोग मुझमें संक्रमित करने में उसे कोई हिचकिचाहट नहीं हुई। नहीं वह मेरा प्रेमी नहीं था सिर्फ पुरुष था कोई भी ऐरा-गैरा पुरुष! मैं ही बुद्धू बक्काल लड़की थी, जो प्रेम-प्रेम रटते हुए पगला गयी थी।
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- इतनी-सी बात मेरी !
- पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
- बंगाली पुरुष
- नारी शरीर
- सुन्दरी
- मैं कान लगाये रहती हूँ
- मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
- बंगाली नारी : कल और आज
- मेरे प्रेमी
- अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
- असभ्यता
- मंगल कामना
- लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
- महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
- असम्भव तेज और दृढ़ता
- औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
- एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
- दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
- आख़िरकार हार जाना पड़ा
- औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
- सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
- लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
- तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
- औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
- औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
- पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
- समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
- मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
- सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
- ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
- रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
- औरत = शरीर
- भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
- कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
- जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
- औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
- औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
- दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
- वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
- काश, इसके पीछे राजनीति न होती
- आत्मघाती नारी
- पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
- इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
- नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
- लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
- शांखा-सिन्दूर कथा
- धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं